असहयोग आंदोलन के कारण और परिणाम | ( jssc & jpsc मैन्स पेपर के लिए इम्पोर्टेन्ट free pdf के साथ )
असहयोग आंदोलन के कारण और परिणाम
1915 ई० में महात्मा गाँधी के भारत
आगमन के समय प्रथम महायुद्ध से लगभग पूरा
विश्व त्रस्त था। होमरूल लीग के नेताओं के विपरीत गाँधी जी को ब्रिटिश सचरित्रता में पूरा
विश्वास था एवं विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने सेना में भर्ती के लिए लोगों को प्रेरित
भी किया।
जिसके कारण उन्हें 'सरकार का सार्जेंट' कहा जाता था तथा ब्रिटिश
सरकार ने भी उन्हें युद्ध
में सहयोग के लिए 'केसर-ए-हिन्द' का पदक दिया था। 1917 ई० के माण्टेग्यु
चेम्सफोर्ड सुधारों से निराश होते हुए भी चम्पारण, खेड़ा में सरकारी समर्थन ने उन्हें 1919 ई० के आरंभ तक सरकार का सक्रिय सहयोगी बनाए रखा।
किन्तु 1919 ई० में ब्रिटिश भारतीय सरकार के कुछ दमनकारी कार्यों
ने उन्हें परिवर्तित होने पर मजबूर कर दिया। रॉलेट एक्ट, जलियाँवाला बाग हत्याकांड, पंजाब में मार्शल लॉ एवं खिलाफत के प्रति
दुर्व्यवहार आदि ने ब्रिटिश सरकार के वास्तविक स्वरूप को उनके समक्ष प्रदर्शित
कर दिया।
उन्होंने अपने असहयोगी रूख की प्रथम अभिव्यक्ति रॉलेट
एक्ट के विरुद्ध दी एवं सरकार के विरुद्ध अहिंसक 'सत्याग्रह सभा' का
गठन किया एवं देश व्यापी हड़ताल का आह्वान किया। 13
अप्रैल 1919
ई० को अमृतसर के जलियाँवाला बाग में निहत्थी सभा पर जनरल डायर
द्वारा गोली चलवाने एवं उस पर गठित हंटर कमीशन की रिपोर्ट ने
गाँधी जी को पूर्णतः आहत किया।
उन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त 'केसर-ए-हिन्द' का पदक वापस कर दिया तथा
घोषित किया कि सरकार के
साथ सहयोग करना अपने साथ अत्याचार होगा। पंजाब के मार्शल लॉ एवं अंग्रेजों द्वारा
तुर्की के साथ वादाखिलाफी ने गाँधीजी के असहयोग के दृष्टिकोण को चरम पर पहुँचा दिया।
परिणामस्वरूप 1920 ई० में गाँधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ शांतिपूर्ण अहिंसक असहयोग आंदोलन आरम्भ
किया। माण्टेग्यु
चेम्सफोर्ड सुधारों से निराश एवं दमनकारी रॉलेट एक्ट के निरस्त न किए जाने के
कारण भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने गाँधी जी के नेतृत्व में अगस्त 1920
ई० में कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मध्य हुए समझौते
ने हिन्दूओं एवं मुसलमानों को एक दूसरे के करीब ला दिया था।
रॉलेट एक्ट विरोधी आंदोलन एवं प्रथम विश्व युद्ध के दौरान
तुर्की के साथ हुए दुर्व्यहार
के कारण मुसलमानों के बीच राष्ट्रवादी प्रवृत्ति ने खिलाफत आंदोलन की शक्ल ले ली। अली भाईयों (मोहम्मद अली, शौकत
अली),
मौलाना आजाद, हकीम
अजमल खाँ और हसरत मोहानी के नेतृत्व में खिलाफत
कमेटी गठित की गई |
नवंम्बर 1919 ई० में दिल्ली में आयोजित अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन ने फैसला
किया कि अगर उनकी माँगे न
मानी गई तो वे सरकार से सहयोग करना बंद कर देंगे। गाँधी जी ने खिलाफत
आंदोलन को हिन्दूओं और मुसलमानों एकता स्थापित करने का ऐसा अवसर माना जो कि आगे सौ वर्षों तक नहीं मिलेगा।
उन्होंने घोषणा की अगर तुर्की के साथ शांति संधि की शर्तें भारत के मुसलमानों को
संतुष्ट नहीं करती है तो वे साथ ही असहयोग आन्दोलन छेड़ेंगे। जून 1920
ई० में एक सर्वदलीय सम्मेलन इलाहाबाद में हुआ, जिसमें स्कूलों, कॉलेजों, अदालतों के बहिष्कार का संयुक्त कार्यक्रम तय किया गया।
ठीक इसी प्रकार भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस ने भी कलकत्ता
एवं नागपुर अधिवेशन से
आह्वान किया कि लोग सरकारी शिक्षण संस्थाओं, अदालतों, अधिवेशन और विधान मण्डलों का बहिष्कार करें, विदेशी वस्त्रों का त्याग करें, सरकारी उपाधियाँ और
सम्मान वापस करें तथा सरकारी नौकरी से त्यागपत्र एवं कर न चुकाएँ।
इस प्रकार हिन्दू मुस्लिम एकता के लिए कांग्रेस और मुस्लिम लीग
ने असहयोग एवं खिलाफत को संयुक्त रूप से अपना लिया। उत्तर
प्रदेश के गोरखपुर जिले में चौरी-चौरा नामक स्थान पर 5
फरवरी 1922 को एक क्रुद्ध
काँग्रेसी भीड़ ने पुलिस थाने पर हमला करके उसमें आग लगा दी जिससे 22 पुलिस कर्मी मारे गए।
कांग्रेस कार्य समिति ने 12 फरवरी 1922
ई० को बारदोली प्रस्ताव द्वारा आंदोलन को स्थगित कर दिया एवं
रचनात्मक कार्यक्रम की ओर उन्मुख होने को कहा। इसका प्रमुख कारण गाँधीजी
का यह भय था कि जन उत्साह और जोश के इस वातावरण में आंदोलन आसानी से हिंसक मोड़ ले सकता है |
एवं उन्हें पूरा विश्वास था कि राष्ट्रवादी कार्यकर्त्ता अभी भी
अहिंसा के स्वरूप
को समझ नहीं सके
हैं तथा इसके अभाव में नागरिक अवज्ञा आंदोलन फल नहीं हो सकता। इसके
अतिरिक्त ब्रिटिश शासन किसी भी हिंसक आंदोलन को आसानी से कुचल सकता था।
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