1857 के विद्रोह की प्रकृति का वर्णन करें | Describe the nature of the Revolt of 1857
1857 के विद्रोह की प्रकृति का वर्णन करें |
1857 की क्रान्ति के
प्रकृति के संदर्भ में अलग-अलग विद्वानों द्वारा अलग-अलग मत प्रस्तुत किए
गए तथा यह प्रश्न वर्तमान में भी विवाद योग्य है, क्योंकि इसके प्रकृति के संदर्भ में एक सामान्य राय स्वीकार
नहीं किया गया है।
सामान्य रूप से इसे सैन्य विद्रोह, जन विद्रोह, धार्मिक विद्रोह, सभ्यता एवं बर्बरता के
मध्य संघर्ष, श्वेत एवं अश्वेत
के मध्य संघर्ष, हिन्दू-मुस्लिम
षडयंत्र, मुस्लिम षडयंत्र, राष्ट्रीय विद्रोह तथा
भारत का प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष इत्यादि के रूप में
विश्लेषित किया गया है।
मॉलेसन, सीले, ट्रेवेलियन, लॉरेन्स, ईश्वरी प्रसाद इत्यादि इतिहासकारों का मानना है
की यह विद्रोह एक सैन्य विद्रोह था क्योंकि सैन्य असंतोष के फलस्वरूप
यह विद्रोह आरंभ हुआ तथा असंतुष्ट सैनिकों द्वारा ही इस विद्रोह को
संचालित किया गया। कुछ अपवादों को छोड़कर इस विद्रोह में
जनभागिदारी नहीं थी।
विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रकट किए गए मत
निम्न है-
1.डफ,
वेल, नार्टम तथा जवाहर लाल
नेहरू द्वारा इस विद्रोह को जन विद्रोह के रूप में
विश्लेषित किया गया था। इसके अनुसार सम्पूर्ण संयुक्त प्रान्त में (सहारनपुर को छोड़कर) आम
जनता द्वारा भी इस विद्रोह में महत्वपूर्ण योगदान दिया गया, अतः यह विद्रोह एक जन विद्रोह का रूप था।
2. रिग्स के अनुसार यह विद्रोह एक धार्मिक
विद्रोह था क्योंकि यह विद्रोह
चर्बीदार कारतूस के प्रश्न पर आरंभ हुआ, जो धार्मिक भावनाओं पर आधारित था। होम्स के अनुसार यह विद्रोह सभ्यता
एवं बर्बरता के मध्य
संघर्ष था। अंग्रेज सभ्यता के प्रकृति थे जबकि भारतीय बर्बरता के प्रकृति थे, तथा यह विद्रोह एक बर्बर
समाज को सभ्य समाज द्वारा सभ्य बनाने का प्रतिफल था।
3. रॉर्बट के. के अनुसार यह विद्रोह श्वेत एवं अश्वेत के मध्य प्रजातिगत संघर्ष था। श्वेत
प्रजातिगत श्रेष्ठता के प्रतिक थे तथा अश्वेत श्वेतों की तुलना में निम्नतर प्रजाती थे। लेकिन इस
संघर्ष में अधिकांश ब्रिटिश भारतीय सैनिकों एवं देशी राजा-महाराजाओं ने अंग्रेजों को समर्थन दिया तथा भारतीय
सैनाओं की सहायता से ही अंग्रेज अपनी सत्ता को पुनः स्थापित करने में सफल रहे अतः इस संघर्ष को अश्वेत समर्पित श्वेत
बनाम अश्वेत के मध्य संघर्ष के रूप में स्वीकार किया जा सकता है।
4. अशोक मेहता, बेंजामिन डिजरैली के अनुसार यह विद्रोह एक राष्ट्रीय विद्रोह था क्योंकि यह विद्रोह उत्तर भारत के मुख्य भौगोलिक क्षेत्र में
प्रभावी हुआ, तथा समाज के सभी
वर्ग पक्ष एवं विपक्ष में शामील हुए। इन विद्वानों के अनुसार किसी भी विद्रोह का स्वरूप
अखिल राष्ट्रीय नहीं
होता है। बल्कि महत्वपूर्ण केन्द्रों पर ही विद्रोहात्मक गतिविधियाँ संचालित होती है।
5.बी.डी. सावरकर ने इस विद्रोह
को भारत का प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष के रूप में
परिभाषित किया। इनके अनुसार यह विद्रोह पूर्व कालिक विद्रोहों की अपेक्षा अधिक व्यापक एवं प्रभावी
स्वरूप में संचालित किया गया था तथा इस विद्रोह का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश सत्ता के प्रभाव को समाप्त कर
पुरातन सत्ता स्थापित करना था अतः यह विद्रोह ब्रिटिशों से मुक्त होने का प्रथम संगठित प्रयास
था।
1957 में भारत सरकार द्वारा विद्रोह
की प्रकृति को विश्लेषित करने के लिए दो प्रसिद्ध इतिहासकार-रमेश चन्द्र मजुमदार एवं सुकुमार सेन को औपचारिक रूप से
नियुक्त किया गया तथा आर.सी. मजुमदार के
अनुसार यह विद्रोह न तो प्रथम, न ही राष्ट्रीय तथा न ही
स्वतंत्रता संघर्ष था तथा यह
विद्रोह अनियोजित एवं स्वतः स्फूर्त था।
यहां उल्लेखनिय है की 1857 के विद्रोह को आउटम एवं टेलर ने
हिन्दू मुस्लिम षडयंत्र के रूप में तथा कूपलैंड
द्वारा मुस्लिम षड़यंत्र के रूप में विश्लेषित किया गया था जो यह ईंगित करता है कि यह विद्रोह एक
नियोजित विद्रोह था, गौरखपुर के जिला
दस्तावेजों के अनुसार यह विद्रोह नियोजित था, तथा मराठा एवं अवध के शासकों द्वारा इस विद्रोह के लिए आवश्यक
पृष्ठभूमि तैयार की गई थी।
लेकिन यह विद्रोह अलग-अलग स्थलों पर अलग-अलग तिथि में आरंभ हुआ तथा
विद्रोह से पूर्व विद्रोहियों के मध्य किसी प्रकार का कोई सम्पर्क सुत्र कायम नहीं था। यधपि
विद्रोह के दौरान विद्रोही नेताओं द्वारा एक दुसरे से सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश
की गई लेकिन विद्रोह को
एकीकृत करने का प्रयास असफल रहा।
इस स्थिति में इस विद्रोह को अनियोजित विद्रोह ही स्वीकार किया जा सकता
है। 1857 का विद्रोह प्रथम
स्वतंत्रता संघर्ष स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि इस विद्रोह में विद्रोहियों द्वारा कोई
वैकल्पिक व्यवस्था की योजना प्रस्तुत नहीं की गई थी। कुछ विद्वानों का मानना है कि इस विद्रोह में दिल्ली के
शासन के रूप में विद्रोहियों ने एक वैकल्पिक मॉडल प्रस्तुत किया था तथा विद्रोहियों का मुख्य
उद्देश्य वैधानिक राजतंत्र के अंतर्गत लोकतंत्र की स्थापना करना था।
दिल्ली में बहादुर शाह जफर
को भारत का सम्राट घोषित किया गया था तथा दिल्ली के शासक ने संचालन के
लिए बख्त खाँ के नेतृत्व में एक 10 सदस्यी शासन परिषद गठित किए गए थे जिसमें 5 सैन्य प्रतिनिधि एवं 5 नागरिक प्रतिनिधि शामील
थे।
यदि सिर्फ अंग्रेजी सत्ता का विद्रोह करना ही स्वतंत्रता संघर्ष
है तो अंग्रेजो के विरूद्ध प्रथम विद्रोह बंगाल प्रान्त में 1772-73 में
सन्यासी विद्रोह के रूप में किया गया था तथा इस विद्रोह को प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष
कहा जा सकता है।
इस आधार पर 1857 के पूर्व के सभी कृषक विद्रोह, जनजातिय विद्रोह एवं नागरिक विद्रोह को
स्वतंत्रता संघर्ष के श्रेणी में रखा जा सकता है। राष्ट्रीयता की संकल्पना एवं आधुनिक संकल्पना
ही, तथा यह संकल्पना 17वीं शताब्दी में यूरोप
में राष्ट्रीय राज्य के उदय से विकसित हुआ तथा एशियाई, अफ्रिकाई, एवं लेटिन अमेरिकी देशों में यह भावना 20वीं सदी में प्रभावी हुई। 19वीं सदी में भारत को एक भौगोलिक अभिव्यक्ति की संज्ञा दी
जाती थी तथा भारत में राष्ट्रीयता के स्थान पर क्षेत्रियता एवं स्थानीयता की भावना अधीक प्रबल
थी।
विद्रोह के सभी प्रमुख नेता राष्ट्रीय हित के बजाय व्यक्तिगत हित के
संरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे थे। विद्रोह के दौरान रानी लक्ष्मी
बाई ने- "मै झाँसी न दूँगी" का नारा बुलंद
किया जो यह प्रभावित करता है कि उनकी राष्ट्रीयता झाँसी तक सिमित थी।
इसी प्रकार दिल्ली के सैनिकों ने वेतन न मिलने के विरोध में दिल्ली की जनता से
लुटपाट किया। ये सभी उदाहरण यह प्रमाणित करता है कि 1857 के विद्रोह में राष्ट्रीयता की भावना प्रभावी नहीं थी। मार्क्सवादी इतिहासकारों
के अनुसार 1857 का विद्रोह
साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद के विरूद्ध कृषकों एवं सैनिकों का एकीकृत प्रतिरोध था।
जिसका मुख्य उद्देश्य वैधानिक राजतंत्र के अंतर्गत लोकतंत्र
की स्थापना करना था। इनके अनुसार ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति के प्रतिक थे जबकि राजा-महाराजा एवं मध्यस्त
वर्ग जिन्होंने अंग्रेजों को समर्थन दिया वे सामंतवादी सत्ता के प्रतिक थे। 1857 का विद्रोह अप्रगतिशील
प्रकृति को प्रदर्शित करता है, क्योंकि इस विद्रोह की सफलता से पुरातन व्यवस्था ही पुनः स्थापित होती, क्योंकि कोई नवीन वैक्लपिक व्यवस्था पूर्व
निर्धारित नहीं की गई थी।
समर्ग रूप से, 1857 की क्रान्ति सैन्य विद्रोह के रूप में आरंभ
हुआ, लेकिन कुछ क्षेत्रों में
जन विद्रोह के रूप में परिवर्तित हो गया। विद्रोह के काल में राष्ट्रीयता की भावना विद्धमान नहीं थी, लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के काल में इसे
राष्ट्रीयता के प्रेरक तत्व के रूप में स्वीकार कर लिया गया। यह
क्रान्ति अनियोजित स्वतः स्फूर्त एवं अप्रगतिशील स्वरूप को प्रदर्शित करता था।
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