चूना पत्थर क्षेत्र की स्थलाकृतियों की उत्पत्ति एवं उनकी विशेषता jpsc&jssc के लिए महत्वपूर्ण टॉपिक free pdf के साथ
चूना पत्थर क्षेत्र की स्थलाकृतियों की उत्पत्ति एवं उनकी विशेषताओं का वर्णन करें? (Origin and characteristics of limestone area topographies Describe?)
चूना पत्थर युक्त धरातल पर प्रवाहित होने वाली वाहित जल चट्टानों में मौजूद
छिद्रों के माध्यम से मार्ग बहाने हुए अनेक आकर्षक स्थलाकृतियों का निर्माण करती है। जिसे कार्स्ट स्थलाकृति भी कहा जाता है।
ज्ञातव्य है कि चूना पत्थर अत्यन्त घुलनशिल पदार्थ होता है
जिसकी रसायनिक अपक्षय
के प्रति प्रतिरोधक क्षमता क्षीण होता है। इसी कारण इसप्रकार की स्थलाकृति का
निर्माण चूनापत्थर या डोलोमाइट चट्टानों से सम्पन्न क्षेत्रों में होती है।
इस प्रकार की स्थलाकृति के विकास के लिए निम्न दशाओं का होना
आवश्यक है-
1. कार्स्ट स्थलाकृति के
उत्पत्ति के लिए विस्तृत किन्तु शुद्ध चूना पत्थर होनी चाहिए। चूना पत्थर
के अलावा डोलोमाइट चट्टान भी कुछ सीमा तक सहायक हो सकती है तथा ये चट्टान ऊपरी सतह के ज्यादा गहराई में नहीं होनी
चाहिए क्योंकि घुलन क्रिया सक्रिय नहीं हो पायेगी।
2. चूना पत्थर चट्टान को सघन
अत्यधिक संधि या जोड़युक्त पतली परतों वाला होना चाहिए। उच्च संधियुक्त प्रकृति के कारण
चट्टानों में उच्च
पारगम्यता विकसित हो जाती है। इन संधियों के अभाव में ऐसे चट्टान वर्षा जल को
अवशोषित करके अपने छिद्रों में एकत्रित कर लेती है।
3. इन स्थलाकृतियों के
निर्माण के लिए यह आवश्यक है कि अमुक क्षेत्र में अधिक से सामान्य
वर्षा होती हो क्योंकि इन स्थलाकृतियों के निर्माण का प्रमुख घटक जल होता है।
4. कार्स्ट
क्षेत्रों में विस्तृत एवं गहरी घाटियां होनी चाहिए इत्यादि ।
कार्स्ट स्थलाकृति विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में देखने को
मिलती है। तथापि इस प्रकार
की स्थलाकृतियों की आदर्श स्थिति कुछ निश्चित भूभागों में पाये जाते है
|
जैसे दक्षिण फ्रांस मैक्सिको का यूकाटम प्रायद्वीप, पश्चिम आस्ट्रेलिया, अमेरिका के फ्लोरिडा, डेनेसी, इण्डियाना, वर्जीनिया, मिसोरी, पूर्ववर्ती
यूगोस्लोवाकिया का एड्रियाटिक तट वाला भाग, भारत के जम्मू-कश्मीर, कुमायू क्षेत्र, मेघालय, रोहतास पठार, चित्रकुट एवं सतना जिला (उत्तर प्रदेश-मध्यप्रदेश सीमा), छतीसगढ़ का बस्तर जिला, पश्चिम क्यूबा इत्यादि।
कार्स्ट क्षेत्र की प्रमुख स्थलाकृति को अपरदनात्मक एवं
निक्षेपात्मक स्वरूप में विभाजित करते है जिनका वर्णन निम्न है-
● अपरदनात्मक स्थलाकृति-
1. लैपीज- चूनापत्थर से
निर्मित क्षेत्रों में घुलन क्रिया के फलस्वरूप ऊपरी सतह अत्यधिक
ऊबड़-खाबड़ तथा असमान हो जाती है। इस तरह की स्थलाकृति को लैपीज कहते हैं। लैपीज को इंग्लैण्ड
में क्लिण्ट, जर्मनी में कैरेन, सर्बिया में बोगाज तथा
डालमेशियन क्षेत्र में लैपीज कहते है। लैपीज के निर्माण के लिए सतह पर ढाल का होना आवश्यक है।
2. घोल रन्ध्र एवं डोलाइन- चूने के प्रदेशों
में वर्षा के जल से घुलन क्रिया के कारण चट्टानों पर असंख्य छोटे छिद्रों का निर्माण
होता है जिसे घोल रन्ध्र
कहते है। छिद्रों का अत्यधिक विस्तार हो जाने से ये डोलाइन का रूप ले लेते
है।
3.युवाला- कई डोलाइन मिलकर
एक वृहदाकार गर्त का निर्माण करते हैं यही विस्तृत गर्त ही युवाला कहलाता है। इसे संयुक्त या
मिश्रित घोल रन्ध्रा कहा
जाता है
4.पोलिये - युवाला से भी
विस्तृत गर्तो को पोलिये कहा जाता है। इसे हिन्दी में राजकुण्ड कहा जाता है। पश्चिमी बाल्कन
क्षेत्र (यूरोप) का सर्वाधिक विस्तृत पोलिये लिवनों पोलिए है।
5.अंधी
घाटी- नदियाँ जब एक विलयन छिद्र पर समाप्त हो जाती है तथा यह स्थिति जब एक
लम्बे समय तक रहती है और नही अपनी घाटी को कार्स्ट मैदान से अधिक चीचा कर लेती है तो ऐसी
स्थिति में अंधी घाटी का
निर्माण होता है।
6.कन्दरा या गुफा - कन्दरायें ऊपरी
सतह के नीचे एक रिक्त स्थान के रूप में होती हैं। कन्दराओं की रचना भूमिगत जल की
घुलनशील क्रिया तथा
अपघर्षण द्वारा होती है। कन्दरा का निर्माण उन भागों में ही संभव होता है जहाँ
चुने की चट्टान की गहरी तथा मोटी परतों का विस्तृत क्षेत्र में विस्तार होता है यह
विस्तार गहराई में भौम जलस्तर तक उर्ध्वाधर रूप में होता है।
इसके बाद अपघर्षण, सन्निघर्षण इत्यादि के द्वारा क्षैतिज रूप में होने लगता है। अर्थात्
कन्दरा का क्षैतीजिय
विस्तार होने लगता है। चूना पत्थर क्षेत्र की यह विशिष्ट स्थलाकृति मानी जाती है।
जैसे- अमेरिका का कार्ल्स बाद कन्दरा, भारत में गुप्तगोदावरी कन्दरा (सतना जिला), देहरादून का गुप्तधाम कन्दरा, इत्यादि प्रमुख है।
• निपेक्षात्मक
स्थलाकृतियाँ -
1. प्राकृतिक पुल - प्राकृतिक पुलों का निर्माण दो रूपों में होता है। कन्दराओ की छत ध्वस्त हो
जाने पर कुछ भाग अवशिष्ट के रूप में रहता है जो प्राकृतिक पुल का निर्माण करता हैं चूना क्षेत्र
में भी जब नदी विलयन छिद्र
से होकर लुप्त हो जाती है तो वह नीचे जाकर अपघर्षण तथा घुलन क्रिया द्वारा कन्दरा का
निर्माण करती है।
2. स्टैलेक्टाइट - जब कन्दराओं की
छत के निचले स्तर पर लम्बे समय तक चूना पदार्थो का निक्षेप होता रहता है ये निक्षेप
लम्बे एंव पतले
स्तम्भों के रूप में होते है। इन लटकते हुए स्तम्भों को ही स्टेक्टाइट कहते है।
इन्हें आकाशी स्तम्भ भी कहते है।
3. स्टलेग्माइट - जब कन्दराओं के
फर्श पर चूना पदार्थों का निक्षेप होता है तब यह लम्बे समय बाद स्तम्भों का रूप ले लेता है।
इस प्रकार के
स्तम्भों को ही स्टैलेग्माइट कहते है स्टैलेग्माइट की अपेक्षा स्टैलेक्टाइट अधिक लम्बे
होते है।
4. कन्दरास्तम्भ - इसका निर्माण
स्टैलेक्टाइट एवं स्टलेग्माइट के मिलने से होता है या फिर स्टैलेक्टाइट के गुरूत्वीय
ढाल के सहारे नीचे की ओर धरातल की ओर बढ़ने एवं जुड़ जाने से भी निर्मित स्तम्भ
कन्दरा स्तम्भ कहलाते है, इत्यादि ।
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