झारखंड में सिंचाई प्रणाली की व्यवस्था | irrigation system in jharkhand
झारखंड में सिंचाई प्रणाली की व्यवस्था | irrigation system in jharkhand
राज्य में उद्योगों एवं खनन कार्य के बावजूद यहाँ कि अबादी
का 60 प्रतिशत हिस्सा कृषि
कार्य पर प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई है। अतः कृषि के विकास की बुनियादी सुविधाओं में
सिंचाई प्रणाली एक अनिवार्य घटक हो जाती है।
झारखण्ड के कुल जलसंसाधन का लगभग 82
प्रतिशत भाग सतही जल से संबंधित है
तथा शेष लगभग 17
प्रतिशत भाग ‘भूमिगत जल’ से। झारखण्ड
सिंचाई आयोग के अनुसार झारखण्ड में 36 लाख
हेक्टेयर भूमि कृषि के लिए उपयुक्त है। इसका 12.25 लाख हेक्टेयर भूमि में सिंचाई की व्यवस्था संभव
है।
वर्तमान समय में केवल 2 लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई की सुविधा मिल रही है। मानसून पर अत्याधिक निर्भरता की स्थिति यहाँ
देखने को मिलती है क्योंकि 8.7 प्रतिशत कृषि भूमि को ही सिंचाई
की सुविधाएँ प्राप्त है। यही कारण है कि झारखण्ड में कृषि को आज भी मानसून के साथ एक जुआ कहा जाता है, क्योंकि मानसून अपनी
अनिश्चितता के कारण विख्यात है।
झारखण्ड में वर्षा का वितरण भी एक समान देखने को नहीं
मिलता। उत्तरी भाग जहाँ 120 सेमी. से कम
वर्षा प्राप्त करते हैं वहीं पाट प्रदेश में 160 सेमी से अधिक वर्षा होती है। झारखण्ड में कुल वर्षा का 3 प्रतिशत शीतकाल में 10 प्रतिशत मानसून से पूर्व, 13 प्रतिशत मानसून के
पश्चात तथा 74 प्रतिशत मानसून के दौरान प्राप्त होता है।
2016-17 के दौरान 25.75 लाख हेक्टेयर भूमि शुद्ध
बोई गई क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल थी। 2.6
लाख हेक्टेयर में एक बार से अधिक फसल और एक साल की अवधि में
लगाई गई थी जो शुद्ध बोई गई भूमि का केवल 14.4 प्रतिशत है। इस प्रकार कहा जा
सकता है कि राज्य में बहुफसली व्यवस्था को प्रभावी बनाने के लिए
सिंचाई की समुचित व्यवस्था आवश्यक है।
झारखण्ड में उत्पादित की जाने वाली
फसलों जैसे- चावल, गन्ना, प्याज, आलू, लहसून आदि के लिए
कुछ अंतराल पर सिंचाई आवश्यक होती है। इसके अलावे राज्य के
अधिकांश क्षेत्र में लाल मिट्टी का विस्तार है। जिसके कारण जल ग्रहण
करने की क्षमता इस मिट्टी में कम पाई जाती है। राज्य में
केवल 2
लाख हेक्टेयर भूमि में नकदी फसलें उपजायी जाती है।
नकदी फसलों की उत्पादकता
पर्याप्त जलापूर्ति पर निर्भर करती है। भारत के कुल पशुधन का 3.7 प्रतिशत झारखण्ड में
मिलता है। अत: यहाँ सिंचाई द्वारा चारागाहों का विकास भी
आवश्यक है। यदि सिंचाई के उद्देश्य से मौसमी नदियों में बांध
बना दिये जाएं तो वर्षा काल में व्यर्थ बह जाने वाले जल का प्रबंधन एवं
संरक्षण संभव है।
इन सबके अतिरिक्त राज्य के कुछ जिले सूखे
से प्रभावित रहते हैं। इन जिलों
में पलामू, गढ़वा, चतरा, हजारीबाग, लातेहार
आदि शामिल हैं। अतः इन जिलों में सिंचाई की व्यवस्था द्वारा ही सूखे से
निपटना संभव है।
सिंचाई के विभिन्न स्रोतः
1. कुआं तथा नलकूप- राज्य के कुल
सिंचित भूभाग के 29.5 भाग पर कुओं
द्वारा खेती की जाती है। रांची, गुमला, धनबाद, गिरिडीह, हजारीबाग, गोड्डा, दुमका तथा सिंहभूम में कुओं के द्वारा सिंचाई अधिक प्रभावी है। गुमला में तो कुल सिंचित भूमि का 87
प्रतिशत भूमि पर कुओं से सिंचाई की जाती है।
सिंहभूम में कुल भूभाग के 17.5 पर कुएं द्वारा सिंचाई की जाती है। झारखण्ड के
भूमिगत जल संसाधन नलकूप द्वारा सिंचाई के लिए अधिक अनुकूल नहीं है। इसका एक प्रमुख कारण यह है कि राज्य के अधिकांश क्षेत्रों में प्राचीन आग्नेय
चट्टानें पाई जाती है जिससे भूमिगत जल का स्तर काफी नीचे हो जाता है।
1975 ई. के बाद
झारखण्ड के विभिन्न जिलों में नलकूप द्वारा सिंचाई का विकास विशेष तौर पर हुआ है। वर्तमान समय
में झारखण्ड के कुल
सिंचित भूमि के 8.4 प्रतिशत पर
नलकूप द्वारा सिंचाई की जाती है। नलकूप द्वारा अपेक्षाकृत अधिक सिंचित वाले जिलों में लोहरदगा, पलामू, हजारीबाग, गिरिडीह, गोड्डा, देवघर, साहेबगंज, पाकुड़ आदि शामिल हैं।
नलकूप सिंचाई का सबसे अधिक उपयोग
लोहरदगा में किया जाता है। यहाँ कुल सिंचित भूमि का 32.6 प्रतिशत पर नलकूपों
द्वारा सिंचाई की जाती है जबकि नलकूपों द्वारा सर्वाधिक कम सिंचाई देवघर में (3.8 प्रतिशत) की जाती है।
2. तालाब- झारखण्ड की धरातल
एवं जलसंसाधन की विशेषताएँ तालाब द्वारा सिंचाई के लिए अनुकूल बनाती हैं। प्राचीन काल
से ही तालाब से सिंचाई
का प्रचलन झारखण्ड में रहा है। वर्तमान समय में राज्य के अन्तर्गत कुल सिंचित भूमि के 18.8 प्रतिशत में तालाब
द्वारा सिंचाई की जाती
है।
साहेबगेंज, देवघर, दुमका, गिरिडीह, हजारीबाग तथा सिंहभूम में तालाब द्वारा सिंचाई अपेक्षाकृत अधिक पाई
जाती है। गुमला, लोहरदगा, रांची तथा पलामू में भी
तालाब द्वारा सिंचाई थोड़ी बहुत मात्रा में की जाती है। तालाब
सिंचाई की दृष्टि से देवघर का प्रथम
स्थान है। इस जिले में तालाब द्वारा कुल भूभाग का 49 प्रतिशत भूमि पर सिंचाई की जाती
है।
3. नहर- झारखण्ड में दो प्रकार की नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है- नदियों
की सदावाही प्रवृति और समतल धरातल में। राज्य के अधिकांश क्षेत्रों में दोनों विशेषताएँ देखने को नहीं
मिलती। इसका एक प्रमुख कारण यहां की नदियों का मौसमी होना है। इसके अलावे यहां की धरातल काफी उबड़-खाबड़ भी
है।
झारखण्ड का भौतिक वातावरण नहर सिंचाई के लिए अपेक्षाकृत बेहतर नहीं है।
साहेबगंज, सिंहभूम, पाकुड़, पलामू, पूर्वी रांची आदि में वृहत् सिंचाई परियोजनाओं के द्वारा नहर सिंचाई का विकास हुआ
है।
झारखण्ड के कुल सिंचित भूमि के लगभग 17 प्रतिशत भाग पर नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है। संथाल परगना तथा सिंहभूम में 10 हजार हेक्टेयर भूमि तथा
पलामू में 9 हजार हेक्टेयर भूमि में
नहरों द्वारा सिंचाई की जाती है।
झारखण्ड की प्रमुख सिंचाई परियोजनाएँ :
भारत के अन्य प्रांतों की
भांति झारखण्ड में भी सिंचाई के लिए वृहत्, मध्यम तथा लघु सिंचाई
परियोजनाएँ लागू की गई है-
1. वृहत् सिंचाई परियोजना- झारखण्ड में अब
तक प्रमुख वृहत् सिंचाई परियोजनाओं में कांची वृहत् सिंचाई परियोजना (रांची), स्वर्णरेखा परियोजना (सिंहभूम), गुमानी, बराज परियोजना (दुमका), कोनार बराज परियोजना (बोकारो-हजारीबाग), अजय-बराज परियोजना (देवघर), पुनासी जलाशय परियोजना
(दुमका-देवघर), उत्तरी कोयल परियोजना (पलामू) तथा
औरंगा जलाशय परियोजना (पलामू) है। इन परियोजनाओं के अंतर्गत संबंधित जिलों में सिंचाई की जाती
है।
2. मध्यम सिंचाई परियोजना- अब तक राज्य में 886 मध्यम सिंचाई परियोजना लागू की गई हैं।
इसके माध्यम से 30 हजार हेक्टेयर से भी अधिक
भूमि में सिंचाई क्षमता विकसित की गई। वर्तमान
समय में 602 परियोजनाएँ
कार्यरत हैं।
इन कार्यरत परियोजनाओं में तेराई जलाशय (दुमका), सकरी गली पम्प योजना (सहेबगंज), झरझरा जलाशय (सिंहभूम), सोनूआ जलाशय (सिंहभूम), पतरातू जलाशय (रांची), सलैया जलाशय (हजारीबाग)
आदि प्रमुख हैं।
3. लघु सिंचाई परियोजना- लघु सिंचाई
परियोजनाओं के द्वारा छोटे जलाशय, तालाब, रोक बांध, नलकूप इत्यादि की व्यवस्था कर 2000 हेक्यर
से कम क्षेत्र में सिंचाई व्यवस्था विकसित करने का प्रयास
किया जाता है।
इसी परियोजना के तहत ही 1975 में बिहार पहाड़ी क्षेत्र उद्वह सिंचाई निगम
लिमिटेड का गठन किया गया जो मौजूदा समय में 'झारखण्ड पहाड़ी क्षेत्र उद्वह
सिंचाई निगम लिमिटेड' के नाम से जाना
जाता है। जल संसाधन विभाग की वार्षिक रिपोर्ट (1990-2000) के अनुसार राज्य में 1110 उद्वह सिंचाई परियोजनाएँ
लागू की गई हैं लेकिन इनमें से केवल 115 कार्यरत हैं।
इस सिंचाई द्वारा राज्य के 62,200 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की क्षमता विकसित की
गई लेकिन वर्तमान समय तक अधिकांश उद्वह सिंचाई परियोजनाओं के ठप्प पड़ जाने के कारण इसका लाभ राज्य को नहीं मिल
सका है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि झारखण्ड में मिश्रित कृषि के विकास की आपार संभावना
है।
लेकिन प्रदेश के 8.7 प्रतिशत कृषि भूमि में ही
सिंचाई की सुविधा उपलब्ध होने के कारण ही
मिश्रित कृषि व्यवस्था राज्य में नहीं हो पाया है। इस ओर सरकारी और गैरसरकारी
संस्थाओं द्वारा व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाए जाने की आवश्यकता है। झारखण्ड के संदर्भ में एक
बड़ी विडम्बना यह है कि अब तक जितनी भी सिंचाई परियोजनाएँ लागू की गई उनका 90 प्रतिशत से अधिक अधूरे पड़े हैं।
वृहत् परियोजनाओं में रांची
के बुण्डू प्रखण्ड में केवल कांची परियोजना को पूर्ण कर 16000 हेक्टेयर
भूमि में सिंचाई की सुविधा प्रदान की जा सकती है। स्वर्णरेखा परियोजना के तहत चांडिल, इचागढ़ तथा गालूडीह के
समीप नहरों के विकास की योजना है।
यदि इन्हें पूरा कर लिया जाए तो 1.7 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि
में सिंचाई की सुविधा प्राप्त हो जाएगी। मध्यम तथा लघु सिंचाई परियोजनाओं की स्थिति भी बहुत
अच्छी नहीं कही जा सकती है। झारखण्ड की भौतिक वातावरण चेक डैम के निर्माण, तालाब सिंचाई, उद्वह सिंचाई के लिए अनुकूल दशाए प्रदान करता है।
आवश्यकता इस बात की है कि जल प्रबंधन के संबंध में एवं जल छाजन के क्षेत्रों में
विकास के समय उपरोक्त तथ्यों को ध्यान में आवश्यक है। यदि उदवह सिंचाई को प्रभावी बनाना है तो विद्युत आपूर्ति भी सुनिश्चित
करने की व्यवस्था होनी चाहिए।
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