वायुमंडल की संरचना तथा संगठन का वर्णन करें | Describe the structure and organization of the atmosphere


 वायुमंडल की संरचना तथा संगठन का वर्णन करें 

वायुमण्डल एक बहुस्तरीय गैसीय आवरण है जो पृथ्वी के चारो ओर गुरूत्वाकर्षण बल के प्रभाव से टिकी हुई है तथा प्राकृतिक पर्यावरण एवं जीवमण्डलीय प्रारिस्थितिकी तंत्र का एक महत्वपूर्ण संघटक है क्योंकि जीव मण्डल के सभी जीवधारियों के अस्तित्व के लिए इससे सभी आवश्यक गैस, ऊष्मा तथा जल की प्राप्ति होती है।

वायुमंडल की संरचना तथा संगठन


वायुमण्डल सूर्य से आने वाली विकरण तरंगों को छानने का कार्य करती है। तथा धरातल को अत्यधिक गर्म होने से बचाती है। वायुमण्डल की भौतिक तथा रासायनिक प्रक्रियाएँ तथा मौसम एवं जलवायु के तत्व जैसे ऊष्मा, तापमान, वायुदाब, पवन, आर्द्रता, वर्षण इत्यादि जीवमण्डल में पौधों एवं जन्तुओं के उद्भव, विकास एवं वृद्धि को सदैव प्रभावित एवं नियंत्रित करती है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि वायुमण्डल के बिना पृथ्वी पर जैविक विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है।

वायुमण्डल में उपस्थित गैसों की सांद्रता एवं विशेषता के आधार पर इनके निम्न संघटन पाये जाते है-

1. नाइट्रोजन- वायुमण्डलीय गैसों में नाइट्रोजन का सांर्द्रत लगभग 78 प्रतिशत पाया जाता है। यह जीवधारियों के लिए एक महत्वपूर्ण गैस होती है परन्तु पौधे एवं जीवधारी इसका प्रत्यक्ष रूप से ग्रहण नहीं करते है, बल्कि पौधे के जड़ों में उपस्थित बैक्टेरिया द्वारा नाइट्रोजन स्थिरीकरण की प्रक्रिया द्वारा नाइट्रोजन को नाइट्रेट में बदला जाता है, तथा इससे पौधे अपना भोजन बनाने में प्रयोग करते है।

नाइट्रोजन का यह अप्रत्यक्ष रूप फलों एवं पक्तियों में भी जमा होता है। जिसका उपभोग मानव एवं अन्य जन्तु करती है। जिससे अप्रत्यक्ष रूप से नाइट्रोजन को ग्रहण किया जाता है। अनाइट्रीकरण की प्रक्रिया द्वारा नाइट्रोजन का वायुमण्डल में पुनः आगमन हो जाता है। इस प्रकार यह एक चक्रोय प्रक्रिया है। इसके अलावे नाइट्रोजन अन्य गैसों के समान अधिक सक्रिय नहीं होती है।

2. ऑक्सीजन- पृथ्वी पर समस्त जीवों के लिए अनिवार्य ऑक्सीजन की वायुमण्डल में प्रतिशत मात्रा लगभग 21 प्रतिशत है। इसका सर्वाधिक संकेन्द्रण धरातल से 16 किमी तक की ऊंचाई तक पाया जाता है। इसके ऊपर स्थिति ऑजोन परत का निर्माण ऑक्सिजन के तीन समस्थानिक ( O3) के सहयोग से होता है।

ऑक्सीजन की प्राप्ति मुख्यतः प्रकाश संशलेषण की प्रक्रिया के उपरान्त होती है। यह गैस रसायनिक दृष्टि से अत्यधिक सक्रिय मानी जाती है, जीवित पदार्थों में कार्बोहाइड्रेट, वसा एवं प्रोटिन के निर्माण में इसकी अहम भूमिका होती है। इसका उपयोग मानव सहित जन्तुओं द्वारा श्वसन एवं जीवाश्म ईंधनों को जलाने में होता है।

3. कार्बन-डाईऑक्साइड- कार्बन-डाईऑक्साइड एक महत्वपूर्ण परिवर्तनशील गैस है इसका वायुमण्डलीय गैसों में संगठन लगभग 0.03 प्रतिशत होता है। प्रकाश संशलेषण की क्रिया में पेड़-पौधे इस गैसों का प्रयोग करते है।

यह गैस सौर्यिक विकिरण तरंगों के लिए पारदर्शी होती है परन्तु दिर्घ तरंगों के लिए अपारदर्शी होती है जिस कारण यह गैस पृथ्वी के तापमान को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

परन्तु इसकी सार्द्रता वायुमण्डल में अधिक होने पर हरितगृह प्रभाव में वृद्धि होती है जिस कारण धरातल के तापमान में वृद्धि होने से ग्लोबल वार्मिंग की समस्या बढ़ जाती है।

4. ओजोन- ओजोन एक हरितगृह गैस है, जो पृथ्वी के जलवायु के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है। ये मुख्यत: ऑक्सीजन के तीन एटम आइसोटोप ( O3) होती है। यह प्रबल ऑक्सीकारी कारक है जो अधिक सांद्रण हो जाने पर विस्फोट के साथ विघटित हो जाती है।

इस गैस का सर्वाधिक सांद्रण समताप मण्डल के नीचले भाग में पाया जाता है। ओजोन के इस परत के कारण ही पराबैगनी किरणें धरातल तक नहीं पहुंच पाती है क्योंकि ये परत पराबैगनी किरणों अवशोषण कर धरातल पर आने से रोकता है।

इसी कारण इसे जीवन रक्षक परत भी कहते है। यद्यपि क्लोरोफ्लोरो कार्बन, नाइट्रोजन ऑक्साइड, हैलोजेन्स इत्यादि गैसों के बढ़ते उपयोग से ओजोन परत को नुकसान पहुंच रहा है। जिसमें ओजोन ( O3) विघटित होती जा रही है।

5. जलवाष्प- जलवाष्प वायुमण्डल के सर्वाधिक परिवर्तनशील गैसों में से एक है। जलवाष्प का लगभग 90 प्रतिशत भाग वायुमण्डल के नीचले 6 किलोमीटर में पायी जाती है। अर्थात् समुद्र तल से ऊंचाई के बढ़ने के साथ-साथ वायु में जलवाष्प की मात्रा घटती जाती है।

इसी प्रकार विषवत रेखा से ध्रुवों की तरफ जाने से जलवाष्प की मात्रा में गिरावट होता रहता है। जलवाष्प के कारण ही संघनन एवं वर्षण के विभिन्न रूप जैसे- कोहरा, पाला, ओस, हिमपात इत्यादि संभव हो पाता है। इसके अलावा यह जलवाष्प दीर्घ तरंगों के लिए अपारदर्शी होती है। जिस कारण ग्रीनहाउस प्रभाव में भी जलवाष्प की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

6. धूलकण- मुख्यतः वायुमण्डल की निचली परतों में पाये जाने वाली धूलकणों के अन्तर्गत धुँआ, धूल, ज्वालामुखी राख, नमक के कण, चट्टानों के महीन टुकड़े इत्यादि को सम्मिलित किया जाता है।

ये धूलकण जलवाष्प के लिए नाभिक का काम करते है। इसी के चारो ओर जलवाष्प इकट्ठा होने से संघनन के विभिन्न रूपों का निर्माण होता है। सूर्य की किरणों का धूल कणों से प्रकीर्णित होने पर ही सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय सूर्य की लालिमा प्रकट होती है।

वायुमण्डल के प्रमुख संघटनों में ऑर्गन, नियोन, जेनॉन, क्रिप्टॉन, इत्यादि अन्य गैस अति अल्प रूप में पाये जाते है।

वायुमंडल की संरचना तथा संगठन


तापीय संरचना के आधार पर वायुमण्डल को निम्न प्रमुख परतों में विभाजित किया जाता है-

1. क्षोभ मण्डल- यह वायुमण्डल की सबसे निचली परत है। जिसे परिवर्तन मण्डल के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि वायुमण्डल की कुल आणविक या गैसीय द्रव्यमान का लगभग 75 प्रतिशत भाग उपस्थित होता है जिसकारण समस्त मौसमी परिघटनायें इसी परत में घटित होती है।

इस मण्डल की ऊंचाई विषुवत रेखा पर अधिकतम 18 किलोमीटर एवं ध्रुवों पर 8 किलोमीटर तक होती है। विषुवत रेखा पर इस परत की ऊंचाई अधिक होने का प्रमुख कारण यहाँ तापमान की अधिकता के कारण उत्पन्न शक्तिशाली संवहन तरंगों द्वारा ऊष्मा का अधिक ऊंचाई तक स्थानांतरित हो जाना होता है।

इसके विपरीत ध्रुवों पर तापमान की न्यूनता के कारण इसकी ऊंचाई कम होती है। ज्ञातव्य है कि क्षोभमण्डल में ऊंचाई के बढ़ने के साथ औसतल 6.5 डिग्री प्रति किलोमीटर की दर से तापमान घटता है, जिसे 'सामान्य ताप पतन दर' कहा जाता है |

इसी कारण क्षोभमण्डल की ऊपरी सीमा जिसे क्षोभ सीमा के नाम से जाना जाता है, पर तापमान न्यूनतम (लगभग -70°) जबकि ध्रुवों के ऊपर क्षोभ सीमा पर तापमान अपेक्षाकृत अधिक (लगभग-50°) होते है। वायुमण्डल के गैसों की अधिक सांद्रता, जलवाष्प एवं धूलकण की अधिकता के कारण संघनन एवं इसके विभिन्न रूप, तुफान, चक्रवात, इत्यादि जैसे मौसमी परिवर्तन इस परत में ही घटित होते है।

2. समतापमण्डल- क्षोभसीमा के ऊपर वाली परत समताप मण्डल कहलाती है। जिसे स्ट्रेटोस्फीयर के नाम से भी जाना जाता है। इस मण्डल में संवहन की क्रिया घटित नहीं होती है क्योंकि सघन, इस मण्डल में संवहन की क्रिया घटित नहीं होती है क्योंकि क्षोभसीमा के ठण्डी व सघन परत के ऊपर अपेक्षाकृत गर्मवायु स्थित होती है।

इस मण्डल के नीचले भाग में 20 किमी (क्षोभ सीमा से 20 किमी) की ऊंचाई में ओजोन गैस की बहुलता होती है जो सूर्य की हानिकारक पराबैगनी किरणों को पृथ्वी की सतह पर पहुंचने पर रूकावट डालती है।

पराबैगनी किरणों के अवशोषण के कारण ही इस मण्डल के तापमान में पुनः वृद्धि होने लगती है एवं इस मण्डल की ऊपरी समताप सीमा (स्ट्रेटोपास) का तापमान बढ़कर लगभग सेंटीग्रेट हो है।

इस परत में बादलों का अभाव, धूलकण एवं जलवाष्प की नाममात्र की उपस्थित के कारण मौसमी परिघटना नगण्य होती है एवं वातावरण शांत रहता है। कभी कभी समताप मण्डल में कुछ विरल बादल दिखाई पड़ते है जिन्हें मुक्ताभ बादल कहा जाता है।

3. मध्यमण्डल- समतापसीमा के ऊपर वायुमण्डल की तीसरी परत पायी जाती है जिसे मध्यमण्डल कहते है। इसका विस्तार 50 से 80 किमी की ऊंचाई तक पाया जाता है। इस परत में ऊंचाई के साथ तापमान फिर से कम होने लगता है और मध्यसीमा (मेसोपास) तक तापमान में लगभग - 100° सेंटीग्रेट तक गिरवाट हो जाती है।

तापमान में यह गिरावट, ओजोन के संकेंद्रण में कमी और पृथ्वी के गर्म धरातल बढ़ती दूरी के कारण होता है। इसके अलावा इस परत में प्रबलतम पवनें पायी जाती है। जो लगभग 3000 किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से बहती है। यहाँ यदा-कदा कुछ बादलों का निर्माण हो जाता है जिसे नॉक्टीलुसेन्ट बादल कहा जाता है।

4. तापमण्डल- मेसोपास के ऊपर स्थिति वायुमण्डल के भाग को तापमण्डल कहते है, जिसमें बढ़ती ऊंचाई के साथ तापमान तीव्र गति से बढ़ता है हालांकि अत्यंत कम वायुमण्डलीय घनत्व के कारण वायुदाब न्यूनतम होता है। यही कारण है कि यहां ऊष्मा को महसूस नहीं किया जा सकता है।

इस मण्डल को दो उपमण्डलों में विभाजित करते है-

(क)आयनमण्डल- इस उपमण्डल का विस्तार वायुमण्डल में मेसोपास (80 किलोमीटर) से 640 किलोमीटर तक पाया जाता है। इस मण्डल में ऊंचाई के साथ कई परतों का निर्धारण किया गया है। जैसे- D, E, F,G-परतें।

D- परत का विस्तार 80 से 99 किमी के मध्य पाया जाता है। यह परत न्यूनआवृतिवाले रेडियोतरंगों को परावर्तित कर देती है। जबकि मध्यम एवं उच्च आवृति तरंगों का अवशोषण कर देती है।

E- परत इस परत को केनली हेवीसाईड परत भी कहा जाता है। जिसका विस्तार 99 किलोमीटर से 130 किलोमीटर तक पाया जाता है। यह परत मध्यम एवं उच्च आवृतिवाली रेडियोतरंगों को परावर्तित करके पृथ्वी की ओर वापस भेज देती है।

F एवं G- परतों का विस्तार क्रमश: 400 एवं 640 किमी तक पाया जाता है। इसी कारण आयनमण्डल पृथ्वी के दूरसंचार प्रणाली में काफी महत्वपूर्ण होते है।

आयतन मण्डल- आयन मण्डल के ऊपर वायुमण्डल की सबसे ऊपरी परत आयतनमण्डल या बाह्य मण्डल कहलाती है। जहां हाड्रोजन एवं हिलियम गैसों की प्रधानता होती है तथा ये गैसे काफी विरल अवस्था में पायी जाती है।

इस मण्डल की महत्वपूर्ण विशेषता पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र द्वारा पकड़े गये आवेशित कणों के कारण उत्पन्न औरोरा आस्ट्रालिस एवं औरोरा बोरियालिस की घटनाऐं क्रमश: दक्षिणी एवं उत्तरी ध्रुवों पर दिखाई देती है। इस घटना के अंतर्गत ध्रुवीय क्षेत्रों में बहुरंगी आतिशबाजी दिखाई पड़ती है।




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