अकबर की धार्मिक नीति और राजपूत नीति के बारे में बताइए(Tell about Akbar's religious policy and Rajput policy)


अकबर की धार्मिक नीति और राजपूत नीति के बारे में बताइए |

अकबर की धार्मिक नीति और राजपूत नीति के बारे में बताइए


धार्मिक दृष्टिकोण से संपूर्ण प्राचीन एवं मध्यकाल के इतिहास में अकबर का शासनकाल अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसनें जिस धार्मिक नीति का अवलंबन किया उसमें उदारवाद, मानवतावाद सुलह-ए-कुल, सर्वधर्म समभाव, राजत्व के आदर्श के साथ-साथ साम्राज्य के सुदृढ़ीकरण की भावना भी निहित थी |

इसनें अपने धार्मिक नीति से सामाजिक सहिष्णुता के साथ-साथ राजनीतिक दृष्टिकोण को भी पूरा किया। इसकी धार्मिक नीति का विकास क्रमिक रूप में हुआ तथा पृथक चरणों के उद्देश्यों में पृथक तत्व भी मौजूद रहे। अकबर के धार्मिक नीति को तीन चरण में विभक्त किया जाता है-

प्रथम चरण (1560-74 ई.) : इस काल में अकबर स्वतंत्र शासक के रूप में उभरा और अपने निर्णयों को प्रभावमुक्त होकर लागू करना शुरू किया, जिसका केन्द्र था- उदारवाद। अकबर ने हिन्दुओं के प्रति उदार नीती अपनाते हुए उन्हें कई प्रकार के छूट दिये।

1562 ई. में हिन्दू युद्ध-बंदियों को दास बनानें की प्रथा समाप्त कर दी गई, 1563 ई. में तीर्थयात्रा कर समाप्त करने की घोषणा की गई, 1564 ई. में हिंदुओं से भेद-भाव मूलक जजिया कर वसूली पर रोक लगा दी गई।

साथ ही बलात धर्म परिवर्तन को भी प्रतिबंधित किया गया। इन कदमों से अकबर ने हिन्दू प्रजा को यह स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की कि यह भारत में शासन शरियत के सिद्धांतों के बजाए सुलह-ए-कुल की नीति पर चलाना चाहता है, और इसके शासन का लक्ष्य कदापि भारत को दारुल-उल-इस्लाम की भूमि में बदलना नहीं है।

कुछ इतिहासकारों का मत है कि अकबर के प्रथम चरण की धार्मिक नीति इस शिक्षा से प्रकट हुई थी कि अकबर हिन्दू उदारवाद के जरिये हिन्दू प्रजा का विश्वास जीत कर दरबार में राजपूतों का समर्थन प्राप्त करना चाहता था, ताकि वह दरबारी गुटबंदी से निजात पा सके और अपने साम्राज्य का तीव्र विस्तारीकरण कर सके। साथ ही अकबर को इसमें भविष्य में अपेक्षित सफलता भी प्राप्त हुई।

द्वितीय चरण (1575-79 ई.) : अकबर के द्वितीय चरण का उद्देश्य था- सत्य का खोज करना दरअसल अकबर को ऐसा लगता था कि उसे दैवीय अनुकंपा प्राप्त है और इसी कारण उसमें धार्मिक जिज्ञासा की प्रकृति बढ़ी और वह सत्य जाननें को इच्छुक हुआ।

सत्य की खोज के लिये अकबर ने अपनी नई राजधानी फतेहपुर सिकरी में 1575 में इबादतखाना की स्थापना कराई तथा सर्वप्रथम इस्लामिक मुल्लाओं तथा उलेमाओं को यहाँ धार्मिक चर्चा हेतु आमंत्रित किया।

हालांकि इन्हें निर्देश दिया गया था कि वे सत्य के अलावे यहाँ कुछ और चर्चा न करें, लेकिन उलेमाओं में सत्य के वास्तविक जानकारी को लेकर तथा अन्य तत्वों को भी लेकर आपसी संघर्ष इस स्तर तक बढ़ गया कि एक-दूसरे की हत्या की स्थिति उत्पन्न हो गई। ऐसे में अकबर ने इबादतखाना को धर्म संसद में बदल दिया।

जिसके बाद यहाँ हिन्दू धर्म से देवी एवं पुरूषोत्म, पारसी धर्म से मेहरजी राणा, इसाई धर्म से फादर एक्वाविवा एवं जैन धर्म से जिन विजय सूरी, हरी विजय सूरी तथा शांतिचंद्र जैसे विद्वान आमंत्रित किये गए। अबुल फजल इन धार्मिक बहसों में मुख्य भूमिका निभाता था

यह चर्चा के विषयों को ही रखता था तथा बहस से उपजे तत्वों का संग्रह भी करता था। इबादतखाना के संपूर्ण चर्चा के बाद अगस्त-सितंबर 1579. में मजहर नामक दस्तावेज जारी किया गया। यह घोषणा पत्र शेख मुबारक ने तैयार किया था, तथा इसे तैयार करने में अबूल फजल एवं फैजी (दोनों शेख मुबारक के पुत्र थे) ने मुख्य भूमिका निभाई।

इस घोषणा के द्वारा अकबर सुल्तान-ए-आदिल तथा अमीर-उल-मोमिनिन की उपाधि ली साथ ही धार्मिक और बौद्धिक सत्ता को अपने हाथों में केन्द्रित कर लिया। (पहले यह उपाधि खलीफा लेते थे)। मजहर के तहत अगर अब दो उलेमा किसी न्यायिक पक्ष को लेकर विवादग्रस्त हों तो अंतिम निर्णय अकबर देता।

ब्रिटिश इतिहासकार वी.ए. स्मीथ ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा है " अकबर मजहर के माध्यम से पोप और सम्राट दोनों बनाना चाहता था। लेकिन यह उसके बुद्धिमता का नहीं, मूर्खता का स्मारक सिद्ध हुआ।"

तृतीय चरण (1579-1605 ई.) :- इस चरण में अकबर ने सर्वप्रथम राजत्व के आदर्शों को बदलने की कोशिश की तथा अपने सत्य के साथ प्रयोगों के आधार पर एक नवीन धर्म 'तौहिद/दिन-ए-इलाही' का प्रतिपादन किया।

इसके तहत राजत्व आदर्श में अबुल फजल ने परिवर्तन किया, उसके अनुसार प्रभुसत्ता एक ईश्वरीय प्रकाश है जो सूर्य के समान है और वह कभी कोई गलती नहीं कर सकता। बादशाह अग्नि, वायु, जल और पृथ्वी से समावेशित है, जिसके माध्यम से वह अपने संपूर्ण प्रजा के कल्याण का कार्य करता है और वह भी भेद-भाव से मुक्त होकर।

अकबर ने अभी तक के अपने संपूर्ण धार्मिक नीति से जो सीख ली, उन अनुभवों के आधार पर 1582. में एक नवीन धर्म के रूप में 'दिन-ए-इलाही' को जन्म दिया। यह एक ऐसी विचारधारा थी जो सर्वेश्वरवाद पर आधारित थी। इसमें सभी धर्म के तत्वों का समावेश था।

जो भी व्यक्ति इस धर्म को स्वीकार करता, उसका सूत्र वाक्य 'अल्लाह-उ-अकबर" होता था। दीक्षा के लिये इतवार का दिन निश्चित था। जहाँगीर के अनुसार दीक्षा लेते समय शिष्य के कानों में कुछ उदार एवं मानवतावादी शिक्षाएँ भी दी जाती थी।

दीक्षित व्यक्ति को जमीन, संपति, सम्मान और धर्म सब कुछ बादशाह के चरणों में समर्पित करना होता था। परंतु अकबर इस धर्म में शामिल होने के लिए किसी को विवश नहीं किया। मात्र 19 लोग इस धर्म से जुड़े, जिसमें एक मात्र हिन्दू बीरबल था। दरअसल लोग जमीन, संपति और सम्मान बादशाह को समर्पित करने के लिए तैयार थे, लेकिन धर्म का त्याग नहीं करना चाहते थे क्योंकि समकालीन रूढ़िवादी प्रवृतियाँ ज्यादा प्रभावपूर्ण थी।

अतः कहा जा सकता है कि अकबर ने धर्म के रास्ते ही विभिन्न धर्मों के बीच विभिन्नता हटानें का एक वैकल्पिक मार्ग रखा, लेकिन लोगों की संकीर्ण सोंच ने इसे सफल नहीं होने दिया और अकबर इसके लिये किसी को बाध्य भी नहीं किया।

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि अकबर के धार्मिक नीति का प्रथम चरण साम्राज्यवादी आवश्यकताओं के अनुरूप था तथा उदारवाद् का जामा पहनें राजनीति से प्रेरित था। जबकि द्वितीय चरण सत्य की खोज से आरंभ हुआ, परंतु इसका अंत उलेमा वर्ग पर राजकीय नियंत्रण से समाप्त हुआ।

इसका तृतीय चरण वैकल्पिक धार्मिक एवं सामाजिक सहिष्णुता को स्थाई बनाने का प्रयास था, लेकिन समकालीन रूढ़िवाद इसे आगे बढ़ने का अवसर नहीं प्रदान किया।

 







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