भारत में उद्योगों के स्थानीयकरण के कारकों का विस्तृत विवरण दे( mind map के साथ )

 

भारत में उधोगों के स्थानीयकरण के कारकों का विस्तृत विवरण दे |

(यह टॉपिक jpsc मैन्स के सलेबस पेपर 3 भूगोल विषय में दिया गया है| इसको लिखने के लिए छात्रों को पहले भूगोल विषय, इकनोमिकस, उसके बाद तकनीक के बारे में बताना चाहिय | जिससे की पेपर चेक करने वालो को ये पता चले की छात्र को उद्योग लगाने के सरे पहलुओं का पता है |)

सामान्य उद्योगो से तात्पर्य एक ऐसे परिसर से है जहां कच्चे माल को मशीनों की सहायता से निर्मित वस्तुओं में बदलने की प्रक्रिया संचालित होती है। इस प्रकार की विस्तृत उद्योगों की स्थापना की परंपरा की शुरूआत औद्योगोगिक क्रांति के उपरांत प्रारम्भ हुई थी |

जब पारम्परिक उद्योगों का स्वरूप विस्तृत परिसर वाले मशीनीकृत उद्योगों ने ले लिया था किसी उद्योग के विशिष्ट स्थान अथवा क्षेत्र में उपलब्ध संसाधनों के परिणामस्वरूप स्थापित होने को उद्योगों का स्थानीयकरण कहते है अर्थात् इसमें उन सभी कारकों को सम्मिलित किया जाता है जो यह निर्धारित करते है कि कोई स्थान विशेष किसी उद्योग के स्थापना व विकास के लिए कितना उपयुक्त है। 

mind map of the factors of localization of industries


इस स्थानीयकरण को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों का वर्णन निम्न है-

1.कच्चामाल- किसी भी उद्योग के स्थापना व परिचालन हेतु कच्चा माल प्रमुख घटक तत्व होता है एवं उद्योग की अवस्थिति कच्चे माल की प्रकृति के अनुसार निर्धारित होती है। जैसे- भारह्यसी पदार्थों (लोहा, कोयला) आदि पर आधारित उद्योग खानों के समीप ही लगाये जाते है अन्यथा यातायात का व्यय बढ़ जायेगा और निवेश के उत्पादन से अधिक होने की संभावना रहेगी। 

इसके अलावा जल्द खराब होने वाली कच्चे पदार्थ जैसे-फल, सब्जियाँ, दूध इत्यादि से संबंधित उद्योग भी कच्चे माल के समीप ही लगाये जाते है। इसके विपरीत कुछ वस्तुऐं ऐसी भी होती है जिसके उत्पादन के दौरान उसके भार में कमी नहीं होती है अतः ऐसी वस्तुओं से संबंधित उद्योगों के लिए कच्चे माल की प्राप्ति के समीप स्थापित होना अनिवार्य नहीं है। जैसे- सूती वस्त्र उद्योग, इंजीनियरिंग उद्योग, घड़ी उद्योग इत्यादि।

2.चालक शक्ति- वर्तमान मशीनीकरण युग में उद्योगों के परिचालन में शक्ति अनिवार्य साधन है। जिसकी प्राप्ति कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, परमाणु ऊर्जा जैसी ऊर्जा स्रोतों से की जाती है। जैसे-लोह-इस्पात उद्योग में इस्पात एवं अन्य निर्मित वस्तुओं को तैयार करने में कोयले से शक्ति प्राप्त की जा सकती है। 

अतः कोयले के खान के समीप ही इस्पात उद्योग को लगाया जाने का प्रयास किया जाता है। हालांकि पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस जैसे ऊर्जा के स्रोत को पाईप लाइन के सहारे एक स्थान से दूसरे स्थान तक आसानी से परिवहन कर लिया जाता हैं अतः यह आवश्यक नहीं है कि इससे संबंधित उद्योग इनकी प्राप्ति स्थल के समीप ही स्थापित हो। 

इसी प्रकार सब-स्टेशनों के माध्यम से विद्युत को आसानी से एक जगह से दूसरी जगह पहुंचना संभव है, जिस कारण उद्योग के समीप ही विद्युत उत्पादन केन्द्रों की उपस्थिति अनिवार्य नहीं है।

3. जलापूर्ति - बहुत से उद्योग जैसे लोह इस्पात, वस्त्र निर्माण, चीनी उद्योग, जूट उद्योग इत्यादि के परिचालन के लिए पर्याप्त जल की आपूर्ति अनिवार्य होती है अतः ऐसे उद्योगों को स्थापित करने से पूर्व जलापूर्ति के बेहतर स्रोत का होना आवश्यक है।

4.श्रम- किसी भी उद्योग के अस्तिवमान होने के लिए श्रम उस ऊर्जा के स्रोत के समान है जिसके बिना उद्योग की कल्पना ही नहीं की जा सकती। स्वचालित मशीन, कम्प्यूटरीकरण बढ़ते प्रवृति के कारण अकुशल मानव शक्ति का महत्व कम जरूर हुआ है तथापि श्रम उद्योग का एक अहम हिस्सा है भारत जैसे देश में श्रम की बहुलता उद्योगों के स्थानीयकरण को सुलभ बनाती है। 

श्रम दो प्रकार के होते है – कुशल श्रम और अकुशल श्रम | कुशल श्रम किसी विशेष कार्यों में निपुण होते हैं | उन्हें इनके कार्यों के लिए अधिक वेतन का दिया जाता है |इनकी मांग वर्तमान समय में बहुत अधिक है ,इनकी संख्या बड़े उद्योगों में अधिक होती है | 

बड़े – बड़े मशीनों को इनके द्वारा चलाया जाता है | अकुशल श्रमिको की संख्या लघु उधोगों में अधिक होता है और इनका वेतन भी कम होता है |

5.परिवहन एवं संचार संसाधन- कच्चे माल का एवं विनिर्मित माल का क्रमशः उद्योग क्षेत्र तक एवं बाजार तक पहुंच को सुनिश्चित करने में सस्ते एवं कुशल परिवहन एक महत्वपूर्ण कारक होती है। 

अतः उद्योगों की स्थापना से पूर्व वहां की परिवहन व्यवस्था को ध्यान में रखा जाता है। इसी प्रकार सूचना के आदान-प्रदान में प्रयुक्त संचार व्यवस्था जैसे- डाक, टेलीफोन, इंटरनेट औद्योगीक विकास में प्रमुख सहायक तत्व है।

6.बाजार- उद्योगों का सारा विकास तबतक व्यर्थ है जबतक की निर्मित माल की खपत के लिए बाजार न हो। अतः उद्योग की स्थापना से पूर्व निर्मित वस्तु की बाजार का बेहतर आकलन किया जाता है भारत के अधिकांश उद्योगों का अवलोकन किया जाये तो बड़े नगरों के समीप ही उद्योगों की स्थापना की जाती है एवं कई औद्योगिक क्षेत्र भी नगरों में तबदील हो चुके हैं।

7.जलवायु- उपयुक्त व स्वास्थ परख जलवायु भी उद्योगों की स्थापना से पूर्व ध्यान में रखी जाती है ताकि इसमें कार्यरत श्रमिकों की कार्यक्षमता प्रभावित न हो।

8.पूंजी- किसी उद्योग के सफल विकास हेतु पूंजी अनिवार्य घटक है। जिसके बिना इसके स्थापना व परिचालन संभव नहीं है। पूंजी के दो प्रकार होते है : स्थिर पूंजी और अस्थिर पूंजी | स्थिर पूंजी टिकाऊ होती है जिसमे सिर्फ एक बार निवेश होता है | 

जैसे – भवन निर्माण ,कारखानों का निर्माण ,मशीनों को खरीदना इत्यादि | अस्थिर पूंजी में निवेश बार- बार किया जाता है | जैसे – मजदूरी देना ,कच्चा माल खरीदना,परिवहन इत्यादि |

9.सरकारी नीति- उद्योगों की स्थापना संबंधी कागजी प्रक्रिया,प्रशासनिक सहयोग, सुरक्षा की व्यवस्था, ऋण, तकनीकी सहायता, क्षेत्रीय विकेन्द्रीकरण इत्यादि से संबंधित निर्णयों को सरकारी नीति प्रभावित करती है। अतः इसमें जितनी पारदर्शिता होगी उद्योगों की स्थापना और विकास को प्रोत्साहन मिलेगा।

10.प्रोधोगिकी – प्रोधोगिक का हमारे औद्योगीकरण पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है |नये –नये आधुनिक तकनीकों ने उत्पादन में लगने वाले समय को काफी कम कर दिया है |जिससे की अधिक उत्पादन कम समय में होने से बाजार में इनकी कीमत कम हो जाती है | 

जिससे की आम आदमी को वस्तु कम मूल्य में प्राप्त होती है | जापान जैसे विकसित देशों ने प्रोधोगिकी पर बहुत खर्च किया है लेकिन विकाशील देश आज में आधुनिक तकनीकों में काफी पीछे है |

उपर्युक्त कारकों के अलावा वित्तीय सुविधा, राजनीतिक स्थिरता, ऐतिहासिक कारक, भूमि की उपलब्धता जैसे कई कारक है जो उद्योगों के स्थानीकरण को प्रभावित करते है।



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