अकबर के धार्मिक विचारों के विकास और सुलह-ए-कुल की निति को परिभाषित कीजिए | with mind map


अकबर के धार्मिक विचारों के विकास और सुलह-ए-कुल की निति को परिभाषित कीजिए |

अकबर ने परिस्थितियों के अनुसार अपने साम्राज्य के सुदृढ़ीकरण व समस्त वर्गों पर आवश्यक नियन्त्रण स्थापित करते हुए उनसे पूर्ण सहयोग की प्राप्ति के लिए अपनी धार्मिक नीति का निर्धारण किया और समयानुसार शासक पद की गरिमा बनाते हुए राज्य के हित के लिए इसमें परिवर्तन भी किये।

अकबर के धार्मिक विचारों तथा उनके विकास को तीन चरणों में देखा जा सकता है। प्रथम चरण 1556-75 ई० द्वितीय चरण 1575-82 ई०, तृतीय चरण 1582-1605 ई० तक है।

प्रारम्भिक दौर में जब उसे भारतीय राजनैतिक दशाओं व प्रशासन का अनुभव ज्यादा नहीं था और शासन पर बैरम खान, माहम अनगा जैसे लोगों का प्रभाव था। इस काल में अकबर की धार्मिक नीति पूर्णतया परम्परावादी व इस्लामी प्रभाव से परिपूर्ण थी। किन्तु साम्राज्य विस्तार व शासन में राजपूतों के सहयोग हेतु उसकी धार्मिक नीति में उदारवादिता के लक्षण दिखाई देते हैं।

इस प्रभाव के कारण उसने दासों का धर्म परिवर्तन, तीर्थयात्रा कर और जजिया जैसे विभिन्न नियमों एवं करों को शिथिल कर दिया। हिन्दुओं को एवं सिखों को धर्म प्रसार के पर्याप्त अवसर प्रदान किये। वह स्वयं हिन्दुओं के त्यौहारों में भाग लेता था और उन्हें प्रशासन में भी मुख्य पद प्रदान किये। इस चरण में हिन्दुओं से पूर्णतया सहयोग लेते हुए साम्राज्य को सुगठित व समृद्ध बनाने के उद्देश्य से अकबर ने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई।

द्वितीय चरण में, बदलती राजनैतिक और धार्मिक परिस्थितियों में अकबर की धार्मिक नीति में भी कुछ महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। 1575 ई० में उसने कुछ समय के लिए पुन: जजिया लगाया किन्तु इसका उद्देश्य राजनैतिक था, जिसके अन्तर्गत चित्तौड़ के महाराणा प्रताप से युद्ध हेतु हासिल करना था। इस चरण में उसकी अन्य धर्मों के सार को जानने की जिज्ञासा बढ़ी।

इस उद्देश्य हेतु इबादतखाने की स्थापना की जिसे बाद में सभी धर्मों हेतु धर्म संसद में परिवर्तित कर दिया। ईसाई, हिन्दू, जैन, पारसी आदि धर्मों के ज्ञान को प्राप्त कर किसी भी धर्म से प्रभावित होकर उसने अपना धर्म परिवर्तन नहीं किया और 1579 ई० में इबादतखाने को बन्द कर दिया। उसका मूल उद्देश्य मुस्लिम धर्म विशेषज्ञों की शासन हेतु लोभ की मनोदशा और अन्य धर्मों की वास्तविकता को जानना था।

अकबर के धार्मिक विचारों के विकास और सुलह-ए-कुल की निति


बादशाह की गरिमा को ऊपर उठाने के लिए और उलेमा वर्ग के बढ़ते हस्तक्षेप पर अंकुश लगाने के लिए उसने 'महजरनामा' की घोषणा की। इस घोषणा में उसने स्वयं को इमाम-ए-आदिल अर्थात् 'पृथ्वी पर ईश्वर के बाद धर्म का सबसे बड़ा ज्ञाता' घोषित किया। इस नीति का मुख्य उद्देश्य उलेमा वर्ग पर  नियन्त्रण स्थापित करना था, जिनकी वजह से राजनैतिक कार्यों में गतिरोध पैदा होता रहता था।

इसके बाद उसने दीन-ए-इलाही की स्थापना की। इसके पीछे अकबर की व्यक्तिगत इच्छा एवं राजनैतिक कारण छिपे हुए थे। इसके द्वारा अकबर मुगल साम्राज्य के अन्तर्गत सभी जातियों एवं धार्मिक सम्प्रदायों के लोगों को एक सूत्र बाँधकर एकता कायम करना चाहता था, ताकि साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान हो। साथ ही वह अपने पद की गरिमा को बढ़ाकर ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में प्रतिबिम्बित करना चाहता था, ताकि लोगों को उसके प्रति श्रद्धा व सम्मान उत्पन्न हो और विद्रोह की भावना में कमी हो। इस तरह से अकबर के चारों ओर निष्ठावान वर्ग भी तैयार होता।

तृतीय चरण में उसने इस्लामी संवत् के हजार वर्ष पूरे होने के बाद 1583 ई० में इलाही संवत् चलाया और धर्म सुधार हेतु अपने को 'महदी' के रूप में प्रस्तुत किया। इस युग तक साम्राज्य का विस्तार व सुदृढ़ीकरण अपने परिपक्व रूप में था। इसलिए अकबर ने एक लोक कल्याणकारी शासक की तरह सामाजिक सुधार का कार्य किया तथा धार्मिक रूढ़िवादिता व कुप्रथाओं को हतोत्साहित किया।

उसने सती प्रथा, बाल विवाह पर रोक लगाई तथा विधवा विवाह को बढ़ावा दिया। उसने बहुत-सी मुस्लिम प्रथाओं जैसेअजान, रमजान, हजयात्रा, खतना, मदरसों में धार्मिक पढ़ाई आदि को भी हतोत्साहित किया। इस चरण में अकबर की धार्मिक नीति सामाजिक सुधार व लोक कल्याण की भावनाओं से प्रेरित थी।

अकबर ने सम्पूर्ण साम्राज्य में समस्त धर्मों के प्रति धार्मिक सहिष्णुता,  सद्भाव एवं सम्मान की नीति अपनाई जिसे सुलह-ए-कुल' कहा जाता है। इसे सभी धर्मों के मध्य समंज्य्स हेतु अपनाया। इस तरह वह सभी धर्मों के मध्य एकता व प्रेम की भावना को प्रेरित करके उनसे पूर्ण सहयोग लेना चाहता था और साम्राज्य में अशान्ति, विद्रोह, द्वेष आदि की भावनाओं को कम करके साम्राज्य को सुढृता व स्थायित्व प्रदान करना चाहता था।

सुलह-ए-कुल के अन्तर्गत उसकी सामाजिक सुधार आदि आते हैं। जो उसने मुगल साम्राज्य में धार्मिक सद्भावना को कायम करने के लिए किया। इस प्रकार अकबर ने सुलह-ए-कुल पर आधारित अपनी धार्मिक नीतियों के सफल क्रियान्वयन से धर्म विशेषज्ञों पर नियन्त्रण लगाकर आम जनता में धार्मिक सद्भावना व सामाजिक सुधार करते हुए साम्राज्य को पूर्णतया सशक्त व स्थाई बनाया |

 

                            अकबरी संविधान

यहाँ संविधान शब्द का प्रयोग अनौपचारिक रूप में किया गया है। यह वस्तुतः मुगल अभिजात्य वर्ग की स्वामी भक्ति को जीतने का उपकरण था। यह एक असम्भागी अभिजात्य वर्ग था जिसमें ईरानी, तूरानी, अफगान, शेखजादे, भारतीय मुसलमान,राजपूत व अन्य हिन्दू तत्त्व दिखाई पड़ते हैं। यही वह कारण है जिसके कारण अकबर महजरनामा की घोषणा करता है। इसके परिणामस्वरूप वह शरा का अन्तिम विवेचनकर्ता हो गया। इसके बाद उसने 'दीन-ए-इलाही' के रूप में एक नई विचारधारा को प्रस्तुत किया। 'दीन-ए-इलाही' ने मुरीदी की अवधारणा को आगे बढ़ाने की चेष्टा की।

मुरीदी की संकल्पना एक सूफी संकल्पना है। इसके अनुसार पीर एवम् मुरीद के बीच एक प्रगाढ़ प्रेम का रिश्ता होता है। अकबर के अनुसार इसी तरह का रिश्ता| अभिजात्य वर्ग व सम्राट के मध्य होना चाहिए। यह रिश्ता एक त्याग की अवधारणा पर आधारित है। यह त्याग मुरीद के जीवन का, सम्पत्ति, प्रतिष्ठा और परिवार का होगा। अर्थात् वो अपना सब कुछ सम्राट पर न्यौछावर करने को तैयार रहेंगे।

इस तरह जब यह रिश्ता प्रगाढ़ हो गया तो जो अमीर वर्ग उभर कर सामने आया। उसकी स्वामि-भक्ति सम्राट के प्रति अविच्छिन्न होगी। इससे राजस्व एकदम स्थिर हो जाता है। इस रूप में अकबर द्वारा 'दीन-ए-इलाही' को जन्म देना महत्त्वपूर्ण रहा था।

 

                             अकबर के सूबे 

अकबर ने अपनी विजयों को व्यवस्थित आधार प्रदान करने एवं प्रशासनिक सुदृढ़ता के उद्देश्य से 1560 ई० में सम्पूर्ण साम्राज्य को 12 प्रान्तों में विभाजित कर दिया गया। इन्हें सूबा कहा गया। ये सूबे इलाहाबाद, आगरा, अवध, अजमेर, अहमदाबाद, बिहार, बंगाल, दिल्ली, काबुल, लाहौर, मुल्तान तथा मालवा थे।

दक्खन की विजय के बाद तीन नए सूबों बरार, खानदेश तथा अहमदनगर को शामिल कर लिया गया और इनकी संख्या 15 हो गई। इन सूबों पर सुनिश्चित नियमों के अनुसार तथा इनमें नियुक्त अधिकारियों द्वारा शासन किया जाता था।

प्रत्येक सूबा कई सरकारों में विभक्त किया गया और उन्हें परगने और महाल में विभक्त किया गया। शाहजहाँ के शासन काल में 'चकला' नामक एक अन्य प्रशासनिक इकाई सामने आई। यह कई परगनों को मिलाकर बनता था।


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