madhyakalin bharat ka itihas notes in hindi pdf topic मुगल चित्रकला और भारतीय संस्कृति में चोलों के योगदान (मध्यकालीन भारत का इतिहास) नोट्स pdf)

madhyakalin bharat ka itihas notes in hindi pdf



मुगल चित्रकला समकालीन सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितियों को दर्शाती है। विवेचना

कीजिए।

मुगलकाल में भवन निर्माण, चित्रकारी, नृत्य, संगीत एवं अन्य विविध कलाओं का विकास हुआ। इस समय हिन्दू-मुस्लिम एवं ईरानी कला शैलियों के प्रभाव से मुगल-शैली का विकास हुआ।

मुगलकाल में चित्रकला की अत्यधिक प्रगति हुई। इस काल में नए दृश्यों एवं विषयों पर चित्र बनाए गए तथा नए रंगों एवं आकारों का प्रयोग आरम्भ किया गया। "मुगलों ने चित्रकला की ऐसी जीवन्त परम्परा की नींव डाली, जो साम्राज्य के पतन के बाद भी देश के विभिन्न भागों में जीवित रही।"


मुगल चित्रकला की विषयवस्तु राजदरबार के चित्र
, दैवीय संरक्षण में चित्र बनाना, बार्डर और धार्मिक ग्रन्थों के चित्र बनाना, आदि विभिन्न विषयों का रोचक चित्रण किया गया जो समकालीन सामाजिक राजनैतिक परिस्थितियों को दर्शाती है। यद्यपि बाबर को चित्रकला में रुचि थी, परन्तु समयाभाव के कारण वह इस पर ध्यान नहीं दे सका। हुमायूँ ईरान से अपने साथ दो कुशल चित्रकारों-मीर सैयद अली तथा ख्वाजा अब्दुल समद को भारत लाया। इनके सहयोग से अकबर 
ने चित्रकला को 'एक राजसी कारखाने' के रूप में गठित किया।

चित्रकला की सुदृढ़ नींव अकबर ने रखी और अपने दरबार में अनेक अच्छे चित्रकारों को आमन्त्रित किया। ऐसे चित्रकारों में प्रमुख दसवंत एवं बसावन थे। इन चित्रकारों द्वारा अकबर ने फारसी कहानियों, महाभारत, अकबरनामा तथा अन्य महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों को चित्रित करवाया। फलस्वरूप चित्रकला पर ईरानी प्रभाव कम हुआ।

अकबर के समय से भारतीय दृश्यों एवं विषयों पर अधिक चित्र बनने लगे। चित्रों में फिरोजी तथा लाल रंगों का प्रचलन बढ़ गया। इसके साथ-साथ "ईरानी शैली के स्पष्ट प्रभाव का स्थान भारतीय शैली के वृत्ताकार प्रभाव ने ले लिया और इससे चित्रों में त्रिविमीय प्रभाव आ गया।पुर्तगाली पादरियों के प्रभाव से अकबर के दरबार में यूरोपीय चित्रकला का भी आरम्भ हुआ।

मुगल चित्रकला जहाँगीर के समय में अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गई। जहाँगीर चित्रकला का अनोखा पारखी था। एक ही चित्र में विभिन्न कलाकारों के कार्यों को वह स्पष्ट रूप से पहचान सकता था। जहाँगीर के समय का सबसे बड़ा चित्रकार मंसूर था।

उसके समय में शिकार, युद्ध एवं राजदरबार के दृश्यों के अतिरिक्त मनुष्य एवं पशुओं के भी चित्र बनाए गए। जो समकालीन सामाजिक-राजनीतिक दृश्यों की स्पष्ट झाँकी प्रस्तुत करते हैं।

जहाँगीर के बाद चित्रकला में गिरावट आ गई। फिर भी शाहजहाँ द्वारा दैवीय प्रतिछाया के स्वयं का चित्र बनवाया गया तथा बार्डर एवं किनारों का विकास तथा संयोजन उत्कृष्ट रूप से होने लगा। औरंगजेब चित्रकला का विरोधी था इसलिए उसने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

फलत: मुगल दरबार से चित्रकला के चित्रकार क्षेत्रीय राजाओं के दरबार में चले गए और विभिन्न क्षेत्रीय चित्रकला शैलियों का विकास हुआ। जैसे-राजस्थानी शैली, काँगड़ा शैली आदि।

उपर्युक्त विवेचन से यह निष्कर्ष प्राप्त होता है कि मुगल चित्रकला समकालीन सामाजिक, राजनैतिक व्यवस्था का स्पष्ट रूप प्रस्तुत करती है और अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण वह इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त कर सकी और पारवर्ती चित्रकला के विकास में आदर्श प्रस्तुत करती रही।

 

 

 

भारतीय संस्कृति के भारत के बाहर प्रसार में चोलों के योगदान का मूल्यांकन

कीजिए।

दक्षिण भारतीय इतिहास में चोलों का महत्त्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि उन लोगों ने दक्षिण भारत के बड़े भू-भाग पर अधिकार कर साम्राज्य की स्थापना की थी, बल्कि राजनीतिक और आर्थिक कारणों से प्रेरित होकर अनेक सामुद्रिक अभियान भी किए। इन अभियानों के परिणामस्वरूप चोल सत्ता का विस्तार श्रीलंका के अतिरिक्त दक्षिण-पूर्व एशिया में भी हुआ। राजनीतिक सत्ता के विस्तार के परिणामस्वरूप चोलों का आर्थिक और सांस्कृतिक सम्बन्ध भी विकसित हुआ।

भारतीय संस्कृति के भारत के प्रसार में चोल शासक परांतक प्रथम का सर्वप्रथम योगदान था। श्रीलंका के राजा से उसका संघर्ष हुआ जो पाण्डय राजा की सहायता हेतु भारत आया था। इसमें परांतक विजयी हुआ। इस संघर्ष ने श्रीलंका के विरुद्ध चोलों को आक्रमण करने तथा आक्रामक नीति अपनाने को मजबूर किया और एक लम्बे संघर्ष का दौर आरम्भ हुआ।

राजराज प्रथम श्रीलंका और चोलों का संघर्ष निर्णायक मोड़ पर पहुँच गया। उसने चेर, पाण्डय तथा श्रीलंका के त्रिगुट को तोड़ा, और शक्तिशाली जल बेड़े के द्वारा श्रीलंका पर अधिकार कर लिया। यहाँ का शासक महिंद्र पंचम था।

उसने श्रीलंका के उत्तरी प्रदेशों पर अधिकार कर श्रीलंका की राजधानी अनुराधापुर को नष्ट कर, उसे चोल साम्राज्य का अंग बनाया तथा उसका नाम मुभड़िचोलमंडलम् रखा। इसकी राजधानी का नाम पोलन्नरुआ रखा। बाद में इसका नाम जगनाथमंडलम रखा गया। वहाँ पर एक शिव मन्दिर का निर्माण करवाया। श्रीलंका पर राजराज की विजय राजनीतिक महत्त्व के अतिरिक्त सांस्कृतिक और आर्थिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण थी। अब श्रीलंका से व्यापारिक सम्बन्ध पहले की अपेक्षा और अधिक सुदृढ़ हुए। इसके साथ ही चोल संस्कृति, स्थापत्य और कला का प्रसार भी श्रीलंका में हुआ। श्रीलंका में तमिल बसने लगे। परिणामस्वरूप चोलों और सिंहलियों में घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित हुए।


राजराज प्रथम के अभियान सिर्फ श्रीलंका तक सीमित नहीं रहे। इसके पश्चात् उसने मालदीव द्वीप समूह के विरुद्ध भी सामुद्रिक अभियान किए और उस पर अपना आधिपत्य कायम किया। यह उसकी बड़ी उपलब्धि थी। अब चोल एक बड़ी सामुद्रिक शक्ति के रूप उभरे तथा मालदीव पर चोल विजय ने चीन के साथ व्यापारिक सम्बन्ध को बढ़ावा दिया।

राजेन्द्र चोल एक साम्राज्यवादी शासक था, उसने अपने पिता के इस विजय अभियान को आगे बढ़ाया। उसने श्रीलंका के दक्षिण भाग अर्थात् सम्पूर्ण श्रीलंका पर आधिपत्य कायम करने का स्वप्न देखा और सफल रहा। महिंद्र पंचम को बंदी बनाकर रखा गया तथा 12 वर्षों के पश्चात् उसकी मृत्यु हुई। इससे उसका सम्पूर्ण श्रीलंका पर आधिपत्य हो गया। परन्तु बाद में संघर्ष हुआ तथा तमिलों का विरोध होता रहा।

इसके पश्चात् राजेन्द्र प्रथम ने कडारम (केद्दह) के श्रीविजय साम्राज्य के विरुद्ध सैनिक अभियान किया, जिसके उद्देश्य राजनीतिक एवं आर्थिक थे। कडारम पूर्वी व्यापार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता था। इस पर विजय ने उसे राजनैतिक प्रतिष्ठा और व्यापार-वाणिज्य को बढ़ावा देने में सहयोग किया। इसी का परिणाम था कि कम्बुज के शासक ने उसकी अधीनता स्वीकार कर उससे मैत्री की याचना की। यद्यपि इस विषय पर इतिहासकारों में मतभेद है कि वह कडारम की विजय करने में सफल हुआ कि असफल। जो भी हो वह उसे अपने साम्राज्य में न मिलाकर उससे कर प्राप्त करता रहा।

इसके पश्चात् राजाधिराज प्रथम और वीर राजेन्द्र ने श्रीलंका में चोलों की सत्ता सुदृढ़ करने का प्रयत्न किया।

कुलोतुंग प्रथम के समय यहाँ उनकी सत्ता दुर्बल हो गयी और विजयबाहु पुनः अपने प्रदेशों को प्राप्त करने में सफल रहा। कुलोतुंग प्रथम ने अपनी पुत्री का विवाह सिंहली राजकुमार से करके अपने सम्बन्धों को और आगे बढ़ाया।

चोलों के सामुद्रिक अभियानों का एक उद्देश्य समुद्री मार्ग द्वरा विदेशी व्यापार का विकास भी करना था। राजनीतिक प्रभुत्व की स्थापना के साथ-साथ इन अभियानों ने श्रीलंका, श्रीविजय साम्राज्य, मालदीव द्वीप कम्पूचिया, चीन और अन्य देशों के साथ व्यापारिक सम्पर्कों को बढ़ावा दिया। चीन से दूतों का आदान-प्रदान हुआ अनेक व्यापारिक शिष्ट मण्डलों का आवागमन हुआ।

कम्बुज तथा मलय प्रायद्वीप से उनके व्यापारिक सम्पर्क बढ़े और मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना हुई। दक्षिण-पूर्व एशिया और चीन से सम्पर्क बढ़ने से वहाँ अनेक बंदरगाह, अनेक बस्तियों की स्थापना हुई। चीन से बड़ी मात्रा में चीनी मिट्टी और पीतल के बर्तन तथा रेशम का आयात होने लगा।

भारत से औषधि, मसाला, कच्चा माल के अतिरिक्त अनेक उत्पादित वस्तुओं का निर्यात विदेशों को किया गया। आर्थिक सुदृढ़ता प्राप्त कर चोलों द्वारा इन देशों में भव्य मन्दिरों का निर्माण करवाया गया तथा मूर्तिकला, साहित्य एवं शिक्षा के विकास को प्रश्रय दिया गया।

इससे यह स्पष्ट होता है कि चोलों ने भारतीय संस्कृति का भारत से बाहर के देशों में प्रचार-प्रसार करने में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इससे विदेशों में भारतीय संस्कृति फूली-फली, जिसका प्रभाव इन देशों में हमें आज भी देखने को मिलता है।







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