indian polity notes in hindi topic indian constituation free pdf download (भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषताये)

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भारतीय संविधान की आधारभूत विशेषताओ की विवेचना कीजिए |


भारतीय संविधान की महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ -

भारतीय गणराज्य का संविधान संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा और फ्रांस के संविधान की तरह एक लिखित दस्तावेज है परन्तु यह इन देशों के संवैधानिक दस्तावेजों से अनेक अर्थों में भिन्न है।

अब तक ज्ञात सबसे बड़ा संविधान : भारत के संविधान को दुनिया में अब तक का सबसे लम्बा और विस्तृत संवैधानिक दस्तावेज होने का श्रेय प्राप्त है। मूलभूत संविधान में 395 अनुच्छेद और 8 अनुसूचियाँ थीं (कालांतर में संशोधनों द्वारा इसमें बहुत कुछ जुड़ता चला गया) । अनेक प्रावधानों को रद्द किए जाने के बाद भी इसमें 444 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ शामिल हैं । आज भी संविधान परिमाणात्मक दृष्टि से लगातार विस्तृत होता जा रहा है | इस परिमाणात्मक विस्तार के कारण हैं :

 (i) विश्व के सभी संविधानों के गहन अध्ययन व विश्लेषण के आधार पर प्राप्त संचित अनुभव का संविधान में समावेश और इस दृष्टि से सभी संभावित त्रुटियों व दोषों की उपेक्षा ।

(ii) राज्यों के संविधानों को भी शामिल करने की प्रवृत्ति ।

(iii) केन्द्र और राज्यों के बीच विधायी, प्रशासकीय और वित्तीय शक्तियों के वितरण के ब्यौरे ।

(iv) इस विशाल देश की पेचीदी, विचित्र समस्याओं के संभावित समाधानों का विवरण ।

(v) नागालैंड, असम, मणिपुर, सिक्किम और मिजोरम सदृश कुछ खास-खास राज्यों की क्षेत्रीय समस्याओं और माँगों को ध्यान में रखते हुए विभिन्न प्रकार के प्रावधानों का विवरण; इनमें परस्पर बहुत अधिक विविधता है क्योंकि भारतीय संघ की सभी इकाईयाँ एक तरह की नहीं हैं ।

(vi) मौलिक अधिकारों पर अत्यंत विस्तृत अध्याय; प्रत्येक अधिकार के साथ उस पर आरोपित बंधनों के बारे में विस्तृत वक्तव्य ।

(vii) मौलिक कर्तव्यों पर एक विस्तृत अध्याय ।

(viii) राज्य के उन नीति निर्देशक तत्वों पर एक पूरा अध्याय जिनको न्यायिक वाद-विवाद से परे मानना वांछित है।


कम कठोर और अधिक लचीला : भारतीय संविधान अपने आप में अद्वितीय है क्योंकि यह अंतशत: कठोर और अंशत: लचीला है। पर यह जितना कठोर है उससे कहीं अधिक लचीला है क्योंकि संविधान के केवल कुछ प्रावधानों के परिप्रेक्ष्य में राज्य विधयिकाओं के अनुसमर्थन (रैटीफिकेशन) की आवश्यकता होती है। यही नहीं, यदि उनका अर्धांश भी अनुसमर्थन कर दे तो काम चल जाता है (जबकि अमेरिकी संविधान में राज्यो के 3/4 अंश का अनुसमर्थन अपरिहार्य होता है) । 

शेष संविधान में संशोधन संसद के एक विशेष बहुमत द्वारा हो सकता है और यह बहुमत प्रत्येक सदन के उपस्थित तथा मतदान करनेवाले सदस्यों के दो-तिहाई भाग से कम नहीं होना चाहिए । पुनः यह भी अनिवार्य है कि यह सदन की कुल सदस्यता का बहुमत हो । दूसरी ओर संसद को संविधान के अनेक प्रावधानों को परिवर्तित या संशोधित करने का अधिकार दिया गया है। सामान्य विधान-निर्माण (लेजीस्लेशन) के लिए आवश्यक बहुमत द्वारा इस तरह के परिवर्तन या संशोधन किए जा सकते हैं और इस दृष्टि से संविधान में यह कहा गया है कि ऐसे परिवर्तन संविधान में संशोधन नहीं माने जाएँगे ।

यह ये बात का प्रमाण है कि संविधान लचीला है। परन्तु यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि संविधान की आधारभूत संरचना में कोई संशोधन नहीं हो सकता है और इसलिए यह अपरिवार्तनीय होने की हद तक कठोर है ।

संसदीय सरकार : संविधान संसदीय सरकार या शासन की संसदीय प्रणाली की बात करता है। केन्द्र और राज्य स्तरों की सरकारें संसद या राज्य विधायिकाओं के प्रति उत्तरदायी तथा लोकसम्मति से निर्वाचित सदस्यों से निर्मित होती है । केन्द्र में राष्ट्रपति (और राज्य स्तर पर राज्यपाल) निर्वाचित होता है जिसे कागजी तौर पर कार्यपालिका के प्रधान के रूप अधिस्थापित किया जाता है। मंत्रिपरिषद् की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है और यह संसद के प्रति उत्तरदायी होती है।

एकात्मक (यूनीटरी) पूर्वग्रह के साथ संघीय प्रणाली : भारत का संविधान एक प्रकार से संघीय शासन-प्रणाली की स्थापना करता है जिसके लिए देश को अनेक राज्यों में विभक्त किया गया है और संविधान में उनके लिए विशिष्ट प्रकार्य निर्धारित किए गए हैं।

परन्तु भारत की संघीय प्रणाली में एकात्मक पूर्वग्रह का तत्व अंतर्भूत है । उदाहरण के लिए, समवर्ती सूची (कांकरेंट लिस्ट) के प्रत्येक मद पर केन्द्र को अंतिम निर्णय देने का अधिकार है । संसद को राज्यों की सीमा रेखाएँ बदलने और वहाँ के शासकीय प्रधानों की नियुक्ति करने का अधिकार प्राप्त है। 

तात्पर्य यह है कि राज्यपाल राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त होते हैं और राज्यों में उनके प्रतिनिधि होते हैं। जब कभी केन्द्र संतुष्ट हो जाता है तो वह किसी राज्य में आपातकाल की घोषणा कर सकता है और इसके बाद राज्य के पूरे प्रशासन को अपने नियंत्रण में ले सकता है ।



धर्मनिरपेक्ष राज्य-संविधान में यह घोषणा की गई है कि भारत धर्मराज्य नहीं बल्कि धर्मनिरपेक्ष राज्य है । इस घोषणा के अनुसार राज्य किसी विशिष्ट धार्मिक संप्रदाय का न तो पक्ष लेगा और न ही उसे संरक्षण देगा । 

धर्मनिरपेक्षता का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम है सांप्रदायिक आधार पर निर्वाचन की प्रक्रिया के उन्मूलन के रूप में दृष्टिगोचर हुआ है| इसकी जगह यह प्रावधान दिया गया है कि चुनाव सार्वत्रिक मताधिकार और संयुक्त पद्धति के आधार पर होना चाहिए ।

सार्वत्रिक मताधिकार-लिंग, संपत्ति, धर्म, कराधान या शिक्षा के आधार पर किसी तरह के भेदभाव के बिना संविधान निर्माताओं ने सार्वत्रिक वयस्क मताधिकार (अनुच्छेद 326) को अपनाया । 61वें संशोधन अधिनियम 1989 द्वारा मताधिकार की आयु सीमा को 21 साल से घटाकर 18 साल कर दिया गया। हमारे संविधान ने सांप्रदायिक प्रतिनिधित्व को भी समाप्त कर दिया ।

स्वतंत्र न्यायपालिका-संविधान में एक स्वतंत्र न्यायपालिका का प्रावधान है। मसलन इसने अदालत द्वारा मौलिक अधिकारों की समुचित ढंग से रक्षा के उपाय विकसित किए हैं। यदि अधिकारों का हनन होता है तो न्यायालय द्वारा निवारण के उपायों पर अमल करने की व्यवस्था की जाती है।

न्यायिक समीक्षा और संसदीय सर्वोच्चता के बीच संतुलन-न्यायपालिका द्वारा समीक्षा का अधिकार भी संसदीय सर्वोच्चता के समतुल्य है और इसे संतुलित करता है | संविधान द्वारा प्रदत्त शक्तियों के वितरण के अनुसार यदि कोई कानून विधायिका की योग्यता सीमा से बाहर है तो न्यायपालिका इसे असंवैधानिक करार दे सकती है। 

इसी तरह उस कानून को भी असंवैधानिक माना जाएगा जो उन मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है जिनकी 'गारंटी' संविधान द्वारा दी गई है परन्तु साथ ही जो न्यायपालिका को बिधायी नीति की संगति की न्यायिक समीक्षा के अधिकार से वंचित करता है। पुनः संविधान का एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है कि यदि न्यायपालिका बहुत अधिक बाधाएँ खड़ी करे तब भी विशेष बहुमत के जरिए उसे संसद द्वारा संशोधित किया जा सकता है। आजकल कार्यपालिका और विधायिका से संबंधित मुद्दों में न्यायपालिका अधिक स्पष्ट और साहसिक हस्तक्षेप कर रही है।

मौलिक अधिकार-संविधान सभी नागरिकों को मौलिक अधिकारों का आश्वासन देता है जो न्याययोग्य (जस्टिसिएबल) है और जिनका उल्लंघन नहीं हो सकता है। परन्तु राष्ट्र की सुरक्षा के हित को ध्यान में रखते हुए इन पर युक्तिसंगत बंधन आरोपित किए जा सकते हैं ।

मौलिक कर्तव्य-1976 के 42वें संशोधन अधिनियम ने 'मौलिक कर्तव्यों' का किया जिनका उद्देश्य मौलिक अधिकारों को सीमित करना है यद्यपि उन्हें न्यायिक सूत्रपात ढंग से लागू नहीं किया जा सकता है। अतः संविधान में मौलिक कर्तव्यों का समावेशन किसी व्यक्ति की नागरिक स्वतंत्रता और दायित्वों के बीच संतुलन स्थापित करने और संविधान में व्याप्त एक गंभीर रिक्तता को समाप्त करने का प्रयास है।

निर्देशक सिद्धांत-राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत भाग IV (अनुच्छेद 36-51) में समाविष्ट हैं। ये राज्य द्वारा प्रदत्त सकारात्मक प्रलोभन या अभिप्रेरण (इंड्यूसमेंट) हैं । वे राज्य के लक्ष्यों और प्रयोजनों पर प्रकाश डालते हैं और सरकार को शासन-कार्य के क्रम में निर्देश देते हैं। चूँकि वे न्याययोग्य नहीं हैं ये निर्देशक सिद्धांत हमारे कल्याणकारी राज्य के आधार हैं । 

परन्तु संसाधन उन्हें पूर्ण रूप से क्रियान्वित करने से सरकार को रोकते हैं और उस पर बंधन आरोपित करते हैं ।

एकल नागरिकता-चाहे उनके मूल निवास स्थान कहीं हो, सभी भारतीयों को भारत की एकल नागरिकता प्राप्त है । एकल नागरिकता का सिद्धांत भारतीय संविधान द्वारा इसलिए प्रदान किया गया कि उसके जरिए भारत के लोगों के बीच सामाजिक और प्रजातीय भेदभाव, भाषाई राजनैतिक एकता के बंधनों को मजबूत बनाया जा सकता विविधता ओर धार्मिक तथा सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की बहुलता के कारण उनमें व्याप्त अंतरों को समाप्त करने की चेष्टा की जा सकती है ।

 




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