Gupt kaal kee saamaajik-aarthik paristhitiyaan(गुप्त काल की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियां )Jpsc paper 3 notes in hindi pdf

 

gupt kaal kee saamaajik-aarthik paristhitiyaan

गुप्त काल में 1200 ई.पू. तक के विभिन्न प्रकार के दान शासनों से तत्कालीन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का मूल्यांकन कीजिए।(1200 BC in the Gupta period Evaluate the then socio-economic conditions from the different types of charity regimes till date.)


गुप्त काल से 1200 ई.पू. तक अर्थात् पूर्व-मध्यकाल में विभिन्न प्रकार के दानों का वितरण शासकों द्वारा  किया गया | जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक ,आर्थिक ,राजनैतिक सभी स्तरों पर मत्वपूर्ण परिवर्तन हुए | गुप्त शासको , हर्ष तथा उसके पश्चात् भूमि को दान देने की प्रथा बहुत जोर पकड़ी जिससे सामन्तवाद का विकास हुआ। इसके अलावा मन्दिरों को भूमिदान, ब्राह्मणों को भूमिदान, गरीबों तथा असहायों को दान, प्रशासनिक व्यक्तियों के खर्चे तथा सेना रखने हेतु भूमि प्रदान की गई जिससे सम्पूर्ण ढाँचे में परिवर्तन हुआ।

गुप्त काल में दिए गए भूमिदानों में अग्रहार, मठापुर भूमि, आदि थे  तो चोल काल तथा हर्ष एवं बाद में दिए गए इस प्रकार के दानों की संज्ञा ब्रह्मदेय, देवभूमि आदि थी। प्रोफेसर रामशरण शर्मा का मानना है कि सामंतवाद की प्रथा का विकास  ब्राह्मणों एवं सैनिकों आदि को दिए गए भूमि अनुदानों के कारण हुआ। इस प्रक्रिया से महत्त्वपूर्ण आर्थिक परिणाम हुए।

इन दानों के परिणामस्वरूप प्रमुख नगरों जैसे तक्षशिला, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र नगरों का पतन हो गया। व्यापारिक गतिविधियों को धक्का लगा। क्योंकि इस दौरान सिक्कों का निर्माण बहुत कम मात्रा में होना प्रारम्भ हो गया था। अब एक बंद अर्थव्यवस्था का निर्माण हो गया और अर्थव्यवस्था के नगरीय तथा व्यापारिक आधार केवल कृषि पर ही निर्भर रह गए। इन सबके कारण भूमि व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया।

इसके पीछे सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह था कि इस दौरान भूमि अनुदान देने की प्रथा को व्यापक पैमाने पर अपनाया गया तथा सम्पूर्ण देश में इसका प्रसार हो गया। यह भूमि अनुदान राजाओं ने तथा उनके बड़े अधीनस्थ सरदारों (सामन्तों) ने अपने अधीनस्थ सेवकों को व्यापक पैमाने पर दिया। 

इस दौरान भूमि अनुदान देने वालों को न केवल भूमि से राजस्व वसूलने के अधिकार दिए गए अपितु उन्हें इस भूमि क्षेत्र के सभी प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के अधिकार दिए गए। इसके अलावा उन्हें तमाम तरह के अन्य कर भी लगाने और वसूलने के अधिकार दिए जाते थे। इसके लिए अनुदान पत्रों में अनुदानग्राहियों के लिए सर्वोपाय संयुक्तम अर्थात् अनुदानग्राही को गाँव का प्रयोग करने के लिए सभी उपायों को करने का अधिकार दिया गया।

राजकीय हस्तक्षेप ऐसे अनुदानों में एकदम नहीं होता था। अनुदान प्राप्तकर्ताओं को अपने गाँव की जनता को दण्ड देने का अधिकार था।

सैनिकों तथा राजकीय अधिकारियों को भी नकद वेतन के बदले भूमि देने की प्रथा का प्रचलन व्यापक हो गया था। यह प्रथा हर्षवर्धन के समय से शुरू हो चुकी थी। ह्वेनसांग के विवरण से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है कि इस समय अधिकारियों को भूमि दी जाती थी। भूमि के क्षेत्रफल के अनुसार उपाधियाँ मिलती थीं। जैसे सामन्त और महासामन्त।

पुलकेशिन की ऐहोल प्रशस्ति से भी यह सिद्ध होता है कि हर्ष की सेना सामन्तों की सेना थी। उदाहरण के लिए हर्ष ने उड़ीसा के बौद्ध जयसेन को 80 गाँव तथा नालंदा विश्वविद्यालय को 100 गाँव अनुदान में दिए थे। हर्षचरित में सामन्तों को 6 कोठियाँ मिलती हैं। सामन्त, महासामन्त, आप्त सामन्त, प्रधान सामन्त, शत्रु सामन्त तथा प्रति सामन्त।

इस प्रक्रिया ने व्यापार तथा वाणिज्य की गतिविधियों को बहुत करारा झटका दिया। इससे सामाजिक और आर्थिक गतिशीलता रुक गई। इसके पीछे प्रमुख कारण यह था कि अनुदानग्राही अपनी-अपनी जमीनों से बँध गए तथा इन क्षेत्रों में रहने वाले लोग भी बँधने लगे। अनुदान प्राप्तकर्ताओं को भूमि देने के साथ ही उस क्षेत्र में रहने वाले किसान, मजदूरों तथा कारीगरों को सौंप दिया जाता था। अर्थात् ये वर्ग अपना क्षेत्र छोड़कर कहीं और प्रवजन नहीं कर सकते थे।

दक्कन तथा दक्षिण भारत में कारीगरों को मन्दिरों और मठों को सौंपा जाने लगा। इन सबका परिणाम यह हुआ कि ऐसा वातावरण बना जिससे बंद अर्थव्यवस्था का उदय स्वाभाविक था। इस दौरान यद्यपि व्यापार-वाणिज्य का ह्रास हआ, तथापि कृषि का अत्यन्त प्रसार भी हुआ। गुप्तोत्तरकालीन अभिलेखीय तथा साहित्यिक साक्ष्य इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। इसके पीछे प्रमुख कारण यह रहा कि कृषिगत क्षेत्रों का प्रसार हुआ तथा कृषि विज्ञान तथा तकनीकि कौशल ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि कृषि का तो विकास हुआ लेकिन कृषकों का शोषण हुआ।

गुप्तोत्तर काल में कृषि पर बोझ बढ़ गया। कृषकों का जमीन पर पैतृक अधिकार नहीं था बल्कि लगान के बदले उन्हें खेती के लिए जमीन दी जाती थी। जमीन से सम्बद्ध भूमिया और गिरिसिया दो वर्गों का उदय हुआ। कुटुम्बी (स्वतन्त्रकिसान), सीरिन (बटाई पर खेती करने वाले) आदि कृषकों की उत्पत्ति हुई।

पूर्व मध्यकाल में शिल्पों एवं उद्योगों के ह्रास, सिक्कों में कमी, व्यापार में गिरावट, नगरों का पतन, आदि परिवर्तन के भूमि अनुदानों का परिणाम था।

भूमि अनुदानों के कारण सामाजिक ढाँचे में भी परिवर्तन हुआ। इससे चातुर्वर्ण्य व्यवस्था प्रभावित हुई। कालबर्न का विचार है कि सामंतवाद तथा भूमि अनुदानों के विकास से जाति व्यवस्था के बन्धन ढीले पड़ गए तथा समाज के उच्च तथा निम्न वर्गों का अन्तर क्रमशः समाप्त हो गया। यह मत आंशिक रूप से ही मान्य है। 

प्रो. यादव के अनुसार इस व्यवस्था से जहाँ एक ओर समाज के उच्च तथा कुलीन वर्ग द्वारा वर्ण नियमों को कठोरतापूर्वक लागू करने का प्रयास किया गया वहीं दूसरी ओर इस युग के व्यवस्थाकारों ने विभिन्न जातियों एवं वर्गों के मिश्रण से बने हुए शासक एवं सामन्त वर्ग को वर्ण व्यवस्था में समाहित कर आदर्श एवं यथार्थ के बीच समन्वय स्थापित करने का कार्य भी किया।

पूर्व मध्यकाल के अनुदानों के कारण भू सम्पत्ति, सामरिक गुण राजाधिकार आदि सामाजिक स्थिति एवं प्रतिष्ठा के प्रमुख आधार बन गए। यहाँ तक कि ब्राह्मण वर्ग भी इनकी ओर आकर्षित हुआ। समाज के प्रथम दो वर्ग, ब्राह्मण तथा क्षत्रिय, एक-दूसरे के निकट आ गए। इसी प्रकार अन्तिम दो वर्गों (वैश्य एवं शूद्र) में भी सन्निकटता आई।

इस प्रकार पूर्व मध्यकालीन समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया। प्रथम भाग में ब्राह्मण एवं क्षत्रिय तथा द्वितीय में वैश्य एवं शूद्र समाहित हो गए। दोनों का अन्तर काफी बढ़ गया। समाज का यह द्विभागीकरण इस काल में पहले की अपेक्षा कहीं अधिक सुस्पष्ट हो गया।

सामन्तों के रहन-सहन का समाज के कुलीन वर्ग पर प्रभाव पड़ा, सामन्त तथा अनुदानग्राही वैभव एवं विलास का जीवन व्यतीत करते थे। समाज के कुलीन वर्ग ने इसका अनुकरण किया, परिणामस्वरूप श्रम को घृणा की दृष्टि से देखा जाने लगा। सामन्तों के ही समान ब्राह्मण भू-स्वामी भी बहुसंख्यक दास-दासियों को अपनी सेवा में रखने लगे, इस प्रकार कुलीन वर्ग एक-दूसरे के श्रम पर निर्भर हो गया।






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