public administration notes in hindi pdf free download topic विकासशील देशों में 'सामाजिक परिवर्तन' के यंत्र के रूप में प्रशासन की भूमिका

 

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विकासशील देशों में 'सामाजिक परिवर्तन' के यंत्र के रूप में प्रशासन की भूमिका की आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए 

लोक प्रशासन एक सभ्य समाज में समस्त दायित्वों की पूर्ति का एक सशक्त माध्यम है । यह न केवल सभ्य समाज का रक्षक है बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त यंत्र है। विकासशील देशों में लोक प्रशासन का दायित्व और भी अधिक है । इन देशों में यह जनकल्याण का माध्यम, लोकतंत्र का रक्षक, सभ्यता व संस्कृति का रक्षक,आजीविका का स्रोत, विकास का पर्याय आदि कई भूमिकाएँ निभाता है । 

औपनिवेशिक शोषण का शिकार रहे अधिकांश विकासशील देशों में नित नयी समस्याएँ एवं चुनौतियाँ लोक प्रशासन पर भारी दबाव डाल रही हैं। इन देशों की राजनीतिक अस्थिरता, सेवा का हस्तक्षेप तथा प्रशासन में राजनीतिक दाँव-पेंच, औपनिवेशिक प्रशासनिक व्यवस्था आदि ने लोक प्रशासन के समक्ष गंभीर संकट उत्पन्न किये हैं। परिणामस्वरूप विकासशील देशों में लोकप्रशासन अपने दायित्वों को पूरा नहीं कर पा रहा है ।

लोक प्रशासन विकासशील देशों में जनकल्याण को सुनिश्चित करने वाले माध्यम के रूप में देखा जाता है किन्तु प्रशासन की संरचना इसको पूरा कर पाने में असमर्थ है। जहाँ एक ओर शासन के कार्यों में वृद्धि हुई है, वहीं दूसरी ओर उन कार्यों के संपादन हेतु आवश्यक प्रशासनिक संस्थाओं और संगठनों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। लोगों की प्रशासन से अपेक्षाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं किन्तु उस अनुपात में प्रशासनिक साधनों है का विस्तार नहीं हो रहा है। 

विकासशील देशों में नित नयी व जटिल समस्याओं के निराकरण हेतु तकनीकी व आर्थिक रूप से दक्ष कर्मियों से युक्त प्रशासन की जरूरत किन्तु यहाँ औपनिवेशिक शिक्षा-व्यवस्था व प्रशिक्षण के अभाव ने योग्य व विशेषज्ञ प्रशासकों का अभाव ला दिया है। इन देशों में लोक प्रशासक आम जनता के कल्याणार्थ नियुक्त होती हैं किन्तु इनमें समुचित लोक सेवा का अभाव होता है और ये स्वयं को जनता का सेवक न समझकर स्वामी समझते हैं । 

लोकतंत्र का रक्षक माने जाने वाली प्रशासनिक व्यवस्था जनता के प्रति अपने दायित्वों से पीछे हट रही है। यहाँ लोकमत का अभाव होने से प्रशासक वर्ग अनुत्तरदायी है और ऐसी स्थिति में नौकरशाही प्रवृत्ति वाला प्रशासन तंत्र विस्तार ले रहा है ।

विकासशील देशों में लोक प्रशासन को सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त यंत्र के रूप में देखा जाता है क्योंकि लोक प्रशासन समाज के प्रत्येक क्षेत्र में हस्तक्षेप रखते हुए उसके विकास से सम्बंधित है। इन देशों में सामाजिक परिवर्तन तभी लाया जा सकता है जब आर्थिक परिवर्तन अथवा विकास के बारे में प्रशासन कार्य करे। 

सामाजिक समस्याएँ जैसे गरीबी, भूखमरी, बेरोजगारी, बालश्रम, शोषण, अपराध आदि पर अंकुश तभी संभव है जब आर्थिक समता लायी जाये । विकासशील देशों में लोक प्रशासन केवल आर्थिक वृद्धि की तरफ अग्रसर है जिससे असंतुलित विकास की स्थिति बनी हुई है। लोक प्रशासन अपने विकास कार्यक्रम में असंतुलन के कारण अनावश्यक व्ययों के बावजूद मूलभूत सामाजिक सेवाओं का संचालन नहीं कर पा रहा है । 

प्रशासन तंत्र का स्वरूप इन दशा में बल्कि आम जनता से बहुत दूर हो गया है । विकासशील देशों में अधिकांश आर्थिक कार्यों निरंकुश एवं नौकरशाही प्रवृत्ति की होने के कारण लोक प्रशासन आम जनता के साथ नहीं जनसहभागिता लगभग शून्य होती है । फलस्वरूप शासक वर्ग नीतियों का क्रियान्वयन इसप्रकार करते हैं कि उनके स्वहित की पूर्ति हो जाये । सत्ताशाली प्रशासन तंत्र उचित नियंत्रण के अभाव में अपनी सत्ता का प्रयोग समाज कल्याण की अपेक्षा अपने व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति के लिए कर रहा है । इस प्रकार इन नवोदित देशों में भ्रष्टाचार लोक-प्रशासन का अनिवार्य अंग बन गया है ।

विकासशील देशों में समाज का स्वरूप परम्परागत एवं पिछड़ा हुआ है जिसके विकास का भार लोक-प्रशासन के कमजोर कंधों पर है | इन देशों में जिस तीव्रतर विकास की जरूरत है उसे पूरा कर पाने में लोक प्रशासन के विकास कार्यक्रम अपर्याप्त हैं । विकास के नाम पर किये गये वृहद व्यय अविकासात्मक लक्ष्यों को पूरा करने में लग जाते हैं जिससे सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन का माध्यम समझा जाने वाला प्रशासन अपनी पूर्वस्थिति में ही रह जाता है ।

इन समाजों में बढ़ता नगरीकरण समाज में अव्यवस्था, बेरोजगारी परिवेशीय असंतुलन आदि का भयंकर रूप दे रहा है जिसके निवारण में विकासशील देशों का प्रशासन तंत्र सक्रियता नहीं दिखा रहा है। इसकी उदासीनता के चलते यह अपने सामाजिक-आर्थिक विकास के लक्ष्य से प्रतिस्थापित हो रहा है । इन देशों में परिवर्तन लाने हेतु दृढ़ इच्छा-शक्ति एवं प्रशासकीय नेतृत्व का अभाव है। देश में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न होने पर प्रशासन इतना सामर्थ्य नहीं रखता कि वह नेतृत्व कर सके । 

वह केवल अपने हित साधने में जोड़तोड़, भ्रष्टाचार तथा राजनीतिक दाँवपेंच में लगा रहता है। प्रशासन तंत्र में व्यापक स्तर पर लालफीताशाही (प्रशासनिक देरी) का पाया जाना विकासशील देशों में लोक प्रशासन को निष्क्रिय करता जा रहा है। इन देशों के प्रशासकों में न तो आत्मविश्वास है और न जनकल्याण के प्रति निष्ठा ।

विकासशील देशों की व्यवस्था इस प्रकार की होती है कि यहाँ नित नयी समस्याएँ एवं जटिलताएँ विकास को पीछे की ओर खींचती हैं। इन देशों में जटिल समस्याओं से निपटने हेतु प्रशासन का विशेषज्ञों से युक्त होना अति आवश्यक है और सामान्य प्रशासक की तुलना में विशेषज्ञ प्रशासक की अधिक उपयोगिता है। 

वर्तमान समय में प्रशासन में सामान्यों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा है जिससे लोक सेवा में दक्ष और तकनीकी दृष्टि से पारंगत एवं प्रशिक्षित प्रशासकों का अभाव परिलक्षित होता है। विकासशील देशों में समाज के संरक्षक अथवा अभिभावक रूप में अपेक्षित लोक प्रशासन अपने अति आवश्यक कार्यों को भी पूरा नहीं कर रहा है। आज समाज, प्रशासन से सुरक्षा के अलावा चिकित्सा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पशुपालन, सिंचाई, डाक व आवास इत्यादि सामाजिक सेवाओं के संचालन की माँग कर रहा है किन्तु लोक प्रशासन इन मूलभूत आवश्यकताओं को भी पूरा करने में असमर्थ है।

विकास प्रशासन का पर्याय माना जाने वाला लोक प्रशासन लोगों की आजीविका का भी स्रोत है किन्तु बढ़ती जनसंख्या और बढ़ते कार्य के बीच अनुपात गलत होने के कारण बेरोजगारी भयंकर रूप में आती जा रही है। लोक प्रशासन द्वारा रोजगार के अवसर उपलब्ध कराये जाने के बावजूद बीच में व्यापक भ्रष्टाचार इसे सही हाथों में जाने नहीं देता है। यहाँ प्रशासन में बढ़ा राजनीतिक हस्तक्षेप, भाई-भतीजावाद तथा अपराधियों से सांठगांठ ने लोक प्रशासन के स्वरूप को विकृत कर दिया । फलतः प्रशासन विकास का यंत्र व समाज का रक्षक होने की बजाय समाज में शोषण का साधन बन गया है |

विकासशील देशों में लोक प्रशासन का मूलभूत प्रतिमान स्वदेशी न होकर अनुकरणात्मक है । यहाँ प्रशासन का स्वरूप स्वतः न अपना कर औपनिवेशिक शासन द्वारा थोपा गया है जिसे आज तक परिवर्तित नहीं किया गया है। पश्चिमी शासन संस्थाएँ एवं नागरिक प्रशासन की प्रक्रियाएँ अपनाने के कारण प्रशासन पद्धति आधुनिक समाज में असंगत होती जा रही है । औपनिवेशिक शासन के तहत निर्धारित प्रशासन तंत्र अत्यधिक नियंत्रणकारी, निरंकुशवादी एवं नौकरशाही प्रवृत्ति का रहा । 

वर्तमान समय में इन देशों में स्वच्छ लोकतंत्रात्मक प्रणाली को अपनाया गया है किन्तु लोक सेवा अभी भी अपने अलोकतन्त्रीय मानसिकता को धारण किये हुए है। लोकतंत्र का तकाजा है कि प्रशासक स्वयं को जनता का सेवक समझे न कि स्वामी किन्तु प्रशासन तंत्र अल्प तंत्र का रूप धारण कर जनता पर शासन कर रहा है। चूँकि प्रशासन में जनसहभागिता एवं जनजागरुकता न होने के कारण नीति-निर्माण व निर्णय-निर्माण इन देशों में अभिजन माने जाने वाले वर्ग के हाथों में ही पूर्णतः होता है। इसलिए आम जनता पर शासन करने की इनकी मनोवृत्ति बन जाती है । 

विकासशील देशों में नैतिकता का अभाव पाया जाता है जबकि प्रशासन एक नैतिक कार्य है। यहाँ लोक प्रशासन की वैधता को सुनिश्चित करने हेतु कानूनी-तार्किक सत्ता उन्हें सौंपी जाती है जिसकी आड़ में वे जनसाधारण को विश्वास में लेकर अपना हित साधने में लगे रहते हैं । विकासशील देशों में सामाजिक तथा आर्थिक विकास हेतु वृहद स्तर पर विकास कार्यक्रम चलाये जाते हैं किन्तु प्रशासन की इच्छाशक्ति के अभाव के कारण अधिकांश परियोजनाएँ ठण्डे बस्ते में पड़ी रहती हैं। 

जिन पर कार्य भी किया जा रहा है, वे समय पर पूरी नहीं हो पाती है क्योंकि कार्यविधियाँ तथा निर्णय प्रक्रियाएँ बहुत विलम्बकारी हैं प्रशासन तंत्र में संचार तंत्र कमजोर है, विशेषत: उल्टा-पुल्टा है, परिणामतः परिणामों की समय पर उपलब्धि नहीं होती। विकास की योजनाओं के मूल्यांकन और जाँच पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता । स्थानीय महत्त्व के कार्यक्रम जनसाधारण की उपेक्षा का शिकार हो रहे हैं जिसकी प्रमुख वजह है प्रभावकारी लोक प्रशासन का अभाव । 

आधुनिक समाज में विकास की भूमिका में देखा जाने वाला लोक प्रशासन आधुनिकता, वैज्ञानिकता, मितव्ययिता तथा दक्षता के अभाव में अपने दायित्वों को पूरा करने में असमर्थ सिद्ध हो रहा है। प्रशासन में शोध के अभाव तथा नवीन तकनीकों की अनुपलब्धता ने इसे परम्परागत स्वरूप में ही जकड़े रखा है जिसके कारण इन देशों का प्रशासन समाज की नयी जरूरतों को पूरा करने में पिछड़ रहा है। कुल मिलाकर औपनिवेशिक शासन-प्रणाली से मुक्त विकासशील देशों के लोक प्रशासन के सामने वृहद दायित्व है जिसे पूरा करना उसके लिए चुनौतीपूर्ण है । 

नगरीकरण की तीव्र प्रवृत्ति, जो अव्यवस्थित है, अनियंत्रित है, प्रशासन पर भारी दबाव डाल रही है। इन देशों में तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या के कारण, लोक प्रशासन जहाँ से चला था, वहीं वापस स्वयं को खड़ा पा रहा है अर्थात् जनसंख्या वृद्धि विकास के लाभों को निष्फल कर रही है। इन देशों में विकासवादियों एवं रूढ़िवादियों के बीच प्रतिद्वन्द्विता से परिवेशीय आयात पर निर्भरता, विकसित देशों से प्रतिस्पर्द्धा आदि आर्थिक समस्याएँ मुँह खोले खड़ी असंतुलन बढ़ रहा है। घोर ऋण संकट, संसाधनों का अनुचित दोहन, आर्थिक विषमता हैं। 

इनसे निपटने के लिए चुस्त-दुरुस्त प्रशासन की आवश्यकता है जिसका विकासशील देशों में पर्याप्त अभाव है। बढती जिम्मेवारियों के प्रति यहाँ का लोक प्रशासन अनुकूलता नहीं रख पा रहा है और पिछड़ रहा है । इन आधारों पर हम ये नहीं कह सकते कि विकासशील देशों में लोक प्रशासन अपनी समस्त जिम्मेदारियों को अनदेखा कर रहा है बल्कि वह उन्हें पूर्ण रूप से पूरा करने में स्वयं को सक्षम नहीं बना पा रहा है । 

वास्तव में, औपनिवेशिक शोषण की पराकाष्ठा ने इन विकासशील देशों का जो हस्र किया और जिस दुर्बल व निःसहाय सामाजिक व आर्थिक स्थिति में इन्हें छोड़ा, उसमें आज क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया है। इसमें लोक प्रशासन की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता | अनेक विपरीत परिस्थितियों से जूझने के बावजूद सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में विकास की जो उपलब्धियाँ हैं, वे तुच्छ नहीं है। 

बढ़ते दायित्वों एवं प्रशासन की कार्यक्षमता में उचित समन्वय के अभाव में बेहतर परिणाम अपेक्षित है किन्तु वर्तमान में इन देशों के लोक प्रशासन में आये सुधारों ने इसे इसके दायित्वों के प्रति गम्भीरता से उन्मुख किया है।






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