प्राचीन भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (jpsc mains & jssc के लिए important) |Science and Technology in Ancient India
प्राचीन भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी
आर्यों के आगमन के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में सिन्धु सभ्यता का विकसित रूप
मूलत: उनकी वैज्ञानिक
उपलब्धियों का सूचक है। प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर उनके द्वारा प्रयोग की गई धातु विज्ञान की विभिन्न
प्रक्रियाएँ जैसे धातुप्रगलन, कांसे का निर्माण एवं मधुच्छिष्ट विधि का प्रयोग, गोदीवाड़ा का निर्माण, नगर नियोजन के विभिन्न तत्व
प्राचीन वैज्ञानिक गौरव के सूचक हैं।
आर्यों के आगमन के पश्चात् विकसित लिपि एवं साहित्य में वर्णित
विभिन्न वैज्ञानिक अभिलक्षण इस काल के विज्ञान को प्रस्तुत करते हैं। अथर्ववेद में वर्णित चिकित्सा प्रणाली, तथा ॠग्वेद के उपवेद ' आयुर्वेद' में सम्पूर्ण चिकित्सा
विज्ञान का उल्लेख प्राप्त होता है।
इसके अन्तर्गत विभिन्न रोगों की पहचान, उनकी दवा, जड़ी-बूटियों आदि का महत्व बताया गया है। इसके
अतिरिक्त शुल्वसूत्र में ज्यामितीय ज्ञान का परिचय प्राप्त होता है। वैशेषिक दर्शन के
प्रतिपादक कणाद ऋषि ने पदार्थ को अपने दर्शन का आधार बनाते हुए अणु की व्याख्या की
जिसके द्वारा भौतिक
विज्ञान का प्रारम्भ माना जा सकता है।
मौर्य काल में कौटिल्य
ने अपने 'अर्थशास्त्र' के एक अधिकरण में
चिकित्सकीय लेप एवं रूप परिवर्तन के रासायनिक लेप का वर्णन किया है। इसका आशय यह है कि मौर्य
युगीन लोग विभिन्न रसायनों एवं चिकित्सकीय पदार्थों से परिचित थे। इसी प्रकार कुषाण युग में कनिष्क
के समय चरक महान् चिकित्साशास्त्री हुए जिनके प्रसिद्ध ग्रन्थ 'चरक संहिता' में चिकित्सा विज्ञान
द्वारा रोग निदान की जानकारी प्राप्त होती है।
चौथी शताब्दी से सातवीं शताब्दी के मध्य विज्ञान की विभिन्न
शाखाओं का उल्लेखनीय विकास हुआ और उनका संकलन वैज्ञानिक व तकनीकी ग्रन्थों में हुआ। इस काल के
प्रमुख गणितज्ञ ज्योतिष विद्या में भी निपुण थे अतः इन दोनों शाखाओं का समुचित विकास हुआ। इनमें आर्यभट्ट
प्रथम, वराहमिहिर, भास्कर प्रथम तथा ब्रह्म
गुप्त प्रमुख हैं।
इस काल के चिन्तकों द्वारा शून्य के सिद्धान्त का प्रतिपादन
तथा दशमलव प्रणाली का विकास किया गया। 'सूर्य सिद्धान्त' में आर्यभट्ट ने
सूर्यग्रहण तथा चन्द्रग्रहण के कारणों की व्याख्या की है। पृथ्वी के आकार के बारे
में उनकी गणना आधुनिक
अनुमान के बिल्कुल करीब है। वे प्रथम भारतीय खगोलशास्त्री थे जिन्होंने बताया कि
पृथ्वी अपनी धुरी
पर घूमती है। इन्होंने अंकगणित, ज्यामिति तथा बीजगणित से सम्बन्धित ग्रन्थ 'आर्यभट्टियम' की रचना की।
आर्यभट्ट के सिद्धान्तों पर भास्कर प्रथम ने 'महाभास्कर्य', 'लघुभास्कर्य' और 'भाष्य' की रचना की।
ब्रह्मगुप्त ब्रह्म-सिद्धान्त की रचना कर
विदेशी ज्योतिष के सिद्धान्त और वेदांग ज्योतिष के पाँच वर्षीय युग और जैन परम्परा
के दोहरे सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र सिद्धान्त की आलोचना की तथा यह नियम दिया कि "प्रकृति
के नियम के अनुसार सभी चीजें धरती पर
गिरती हैं, क्योंकि पृथ्वी की प्रकृति चीजों
को आकर्षित कर उन्हें रखने की है।"
वराहमिहिर की 'वृहत् संहिता' खगोलशास्त्र, वनस्पति विज्ञान आदि का
विश्वकोष है। अन्य प्रसिद्ध ग्रन्थ पंचसिद्धान्तिका, वृहज्जातक, लघुजातक हैं। फलित
ज्योतिष पर कल्याण वर्मन ने सारावली लिखी।
इसी काल में औषधि शास्त्र का सैद्धान्तिक पक्ष प्रबल हुआ, वाग्भट्ट ने आयुर्वेद
ग्रन्थ 'अष्टांग
हृदय'
की रचना की। चन्द्रगुप्त द्वितीय
के दरबारी धन्वन्तरि प्रसिद्ध चिकित्सा विज्ञानी थे। एक अन्य चिकित्सा ग्रन्थ 'नवनीतिकम्' रचना एवं पशुचिकित्सक पालकाप्य ने 'हस्त्यायुर्वेद' की रचना की। इसके
अतिरिक्त शल्य चिकित्सा का ज्ञान भी इस युग में था |
नागार्जुन रसायन और धातुविज्ञान के विख्यात ज्ञाता थे, उन्होंने 'रस-चिकित्सा' का आविष्कार किया तथा
बताया कि सोना, चाँदी इत्यादि खनिजों के
रासायनिक प्रयोग से रोगों की चिकित्सा हो सकती है।
धातुविज्ञान का प्रसिद्ध उदाहरण चन्द्र का मैहरोली स्तम्भ, सुल्तानगंज
की ताँबे की प्रतिमा, विभिन्न सिक्के
और मुहरें इसके
विकास के सूचक हैं |
प्रस्तुत तथ्यों के आधार पर यदि वर्तमान युग की
वैज्ञानिक उपलब्धियों का विवेचन करें तो ज्ञात होता है कि विभिन्न सिद्धान्त पूर्व वैज्ञानिकों द्वारा प्रदत्त
सिद्धान्तों के या तो अनुकरण मात्र हैं अथवा उसका परिवर्तित विकसित रूप है।
जैसे कॉपरनिकस का सिद्धान्त आर्यभट्ट का, न्यूटन का गुरुत्व
सिद्धान्त ब्रह्मगुप्त का ही अनुकरण मात्र है। इसी प्रकार चिकित्सा विज्ञान एवं
शल्य चिकित्साशास्त्र भी पूर्व भारतीय वैज्ञानिकों की ही देन है जिससे सम्पूर्ण
विश्व लाभान्वित हो रहा है।
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