न्यायिक सक्रियता क्या है ? इसके पक्ष और विपक्ष बताये | ( jpsc mains के पेपर 4 के लिए अति महत्वपूर्ण टॉपिक )

न्यायिक सक्रियता क्या है ? इसके पक्ष और विपक्ष बताये |


न्यायिक सक्रियता क्या है ? 

सरकार के तीन अंग है : कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। तीनों के पृथक् अधिकार एवं कर्तव्य क्षेत्र हैं लेकिन जब कार्यपालिका और विधायिका अपने कर्तव्य एवं अधिकार को संचालित करने में अक्षम साबित होती है तो ऐसी स्थिति में इनके सामान्य कार्यवाहियों पर न्यायपालिका का हस्तक्षेप होना ही न्यायिक सक्रियता कहलाती है।

न्यायिक सक्रियता के पक्ष और विपक्ष  :

न्यायपालिका भारतीय लोकतंत्र की रक्षा और विकास के क्षेत्र में अहम् भूमिका निभाती है और जब कार्यपालिका और विधायिका अपने कार्य को संविधान के अनुरूप नहीं कर पाते हैं तो ऐसी स्थिति में उसका सफल संचालन न्यायपालिका ही करती है।

इस तरह न्यायपालिका का कर्त्तव्य बहुत अधिक बढ़ जाता है। क्योंकि वर्तमान में हमारे प्रतिनिधि को पद और जनता के मत के सिवाय और किसी भी चीज की आवश्यकता महसूस नहीं होती।

अंग्रेजों ने जो "फूट डालो और शासन करो" की नीति अपनायी थी वही आज हमारी राजनीतिक व्यवस्था में हमारे राजनेता या प्रतिनिधियों ने देश की जनता को अगड़ी जाति-पिछड़ी जाति, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति तथा धर्म के आधार पर विभक्त कर अलग-अलग हथकंडे अपनाकर जनता को वोट बैंक बना रखा है।

उन्होंने इस क्रम में सामाजिक संतुलन के उद्देश्य को नजरअंदाज किया। ऐसे में न्यायपालिका की भूमिका अत्यधिक बढ़ गयी है | जब कार्यपालिका और विधायिका अपनी जिम्मेदारियों को प्रभावशाली ढंग से निष्पादन करने में विफल हो जाती है तो न्यायपालिका उस पर हस्तक्षेप के माध्यम से दबाव बढ़ाती है।

यह दबाव जनता, राजनीतिक एवं सामाजिक संगठनों तथा जन संचारों के माध्यम से डाली जाती है। ऐसी परिस्थितियों में ही न्यायपालिका अपने सामान्य कार्यक्षेत्र से बाहर निकलकर राजनीतिक और न्यायिक सक्रियता दिखाती है।

न्यायिक सक्रियता के फलस्वरूप ही कानून की सत्ता बरकरार रखने तथा सुनिश्चित करने में न्यायपालिका सक्षम हो पाती है। न्यायपालिका की अत्यधिक भागीदारी बढ़ने से जहाँ एक ओर संसदीय लोकतंत्र में कानून व्यवस्था सुनिश्चित होती हैं वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका के हस्तक्षेप के कारण कुछ समस्याएँ भी आती है।

न्यायपालिका में कुछ मामले ऐसे होते हैं जो अभियुक्तों को मुकदमे में न्यायाधीश के रवैये के कारण निष्पक्ष फैसला नहीं मिल पाता है। ऐसी स्थिति में न्यायपालिका संसदीय लोकतंत्र के लिए गलत साबित होती है।

न्यायपालिका शक्ति के बढ़ जाने के कारण ही भारत की शासन प्रणाली में प्रश्नचिन्ह लग गया है क्योंकि न्यायिक सक्रियता के कारण लोकतंत्र व्यवस्था में विधायिका और कार्यपालिका ही जनता के प्रति उत्तरदायी हो गयी है , क्योंकि इनको नीति निर्धारण के समय अनेक समस्याएँ आ खड़ी होती हैं।

न्यायपालिका से तानाशाही प्रवृत्ति को भी बढ़ावा मिला। ऐसी स्थिति में लोक कल्याणकारी राज्य की संकल्पना करना एक कठिन कार्य होगा। इसलिए हमारे संविधान में तीनों को अपना पृथक् अधिकार क्षेत्र दिया गया है। जैसा कि सर्वविदित है कि हमारी परम्परा सर्वोच्च है जिसमें दोनों का समन्वय पाया जाता है।

लेकिन फिर भी जब विधायिका और कार्यपालिका संवैधानिक रूप से अपने कार्यों को करने में सफल नहीं होते। इस समय न्यायपालिका अपने सामान्य कार्यक्षेत्र से बाहर निकलकर इन कार्यों पर भी अंकुश लगाती है। यही प्रक्रिया न्यायिक सक्रियता कहलाती है।

उपरोक्त तथ्यों के अवलोकन से स्पष्ट है कि न्यायिक सक्रियता संसदीय लोकतंत्र में द्विधारी तलवार है क्योंकि जहाँ एक ओर न्यायपालिका संसदीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती है। न्यायिक सक्रियता कार्यपालिका और विधायिका को अपने कर्त्तव्य के प्रति सजग करता है और वह अपने विभिन्न फैसलों के माध्यम से कार्यपालिका और विधायिका को मार्गदर्शन भी देता है।

न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका को अपने संवैधानिक अधिकारों के अन्दर कार्य करने को सचेत करती है जिससे संसदीय लोकतंत्र को मजबूती प्राप्त होती है। न्यायपालिका संविधान के भाग III में लिखित मौलिक अधिकारों पर संरक्षण प्रदान करती है और उसके हनन होने पर रिट के माध्यम से पुनः अधिकार प्रदान करता है।

इसी प्रकार राज्य के नीति निदेशक तत्व न्यायालय में वाद नहीं है, फिर भी समाजिक एवं आर्थिक न्याय के लिए आवश्यक है कि न्यायपालिका इसके क्रियान्वयन के लिए सरकार को आवश्यक निर्देश जारी कर इसे निर्देश करने का सुझाव देती है।

न्यायिक सक्रियता भ्रष्टाचार जैसे आपराधिक मामलों एवं हवाला कांड, चारा कांड, तांसी भूमि घोटाला कांड इत्यादि को उजागर करके उसमें रोक लगाने में सहायता प्रदान करती है, जो लोकतंत्र के लिए हितकर है। न्यायिक सक्रियता से ही चुनावी भ्रष्टाचार एवं अनियमितताओं को रोकने में सफलता मिली है जिससे लोकतंत्र को मजबूती मिली।

अर्थात् उपरोक्त तथ्य से स्पष्ट है कि न्यायिक सक्रियता संसदीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती है लेकिन इसकी कुछ प्रवृत्तियाँ संसदीय लोकतंत्र को हानि भी पहुँचाती है वह निम्न हैं :

न्यायपालिका का अत्यधिक गतिशील होने से संसदीय लोकतंत्र के प्रति जनता का आस्था कम होती है और लोगों की आस्था प्रतिनिधि सभा की तुलना में न्यायपालिका के प्रति अधिक बढ़ जायेगी जो लोकतंत्र के लिए सही नहीं है।

न्यायिक सक्रियता कार्यपालिका और विधायिका पर पूरा प्रभाव डालता है क्योंकि न्यायिक सक्रियता के कारण विधि निर्माण में बेवजह देरी होती है जिससे उनकी दक्षता कम होने लगेगी।

इसके अलावा मुकदमेबाजी को बढ़ावा मिलेगा और इस मुकदमेवाजी से सिर्फ कार्यपालिका और विधायिका ही नहीं बल्कि न्यायपालिका भी प्रभावित होगी। जिससे लोकतंत्र का संकलन भी अव्यवस्थित हो जायेगा |

निष्कर्ष :

स्पष्टतः न्यायिक सक्रियता जहाँ एक ओर संसदीय लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती है तो दूसरी ओर इसके लिए घातक भी है। अर्थात् यह संसदीय लोकतंत्र के लिए द्विधारी तलवार है।




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