भारतीय पुनर्जागरण और भारतीय महिलाओं का उत्थान with mind map


भारतीय पुनर्जागरण और भारतीय महिलाओं का उत्थान

भारत में पुनर्जागरण का युग 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध से माना जाता है। राजा राम मोहनराय इसके पितामह कहे जाते हैं। पुनर्जागरण के दौरान जीवन के पत्येक पहलू को नई सोच से देखा जाता है। जिसका विकास कला, साहित्य, विज्ञान व मनुष्य के जीवन के प्रत्येक भौतिक पक्ष में होता है।

भारतीय पुनर्जागरण के केन्द्र में मानवता तथा तर्कवाद था। यहाँ इसकी शुरूआत धार्मिक-सामाजिक पुनर्जागरण के रूप में हुई। जिसमें प्राचीन हिन्दू धर्म और सामाजिक रूढ़ियों की समीक्षा की गई।

नारी मुक्ति सती प्रथा, विधवा विवाह, बाल विवाह, एकेश्वारवाद निम्न जाति उद्धार आन्दोलन आदि हुए। इसमें मुख्य भूमिका उच्च शिक्षित वर्गों की थी।

19वीं सदी में भारत तीव्रता पूर्वक सांस्कृतिक पुनर्जागरण के माध्यम से समाज एवं धर्मसुधार में संलग्न था। धर्मसुधार आंदोलन के केन्द्र में महिला एवं दलित समाज के लोग थे, क्योंकि प्राचीनकाल से हिन्दू संस्कृति की धार्मिक कुरीतियों का शिकार यही दोनों वर्ग बना हुआ था।

अतः 19वीं सदी के उदारवादी, प्रगतिशील चिंतकों ने इस मत पर आस्था प्रकट की कि भारत में महिलाओं एवं दलितों की दशा में सुधार से पुनर्जागरण सफल हो जाएगा और भारतीय समाज में एकता तथा सौहार्द्रपूर्ण वातावरण विकसित होगा।

महिला सुधार को केन्द्र में रखने का एक महत्वपूर्ण कारण यह था कि जेम्समील जैसे विदेशी विचारक भारतीय महिलाओं के हीन दशा के आधार पर ही भारतीय समाज को असभ्य एवं पिछड़ा मानते थे।

साथ ही भारत में समाज सुधार के लिये पहली आवश्यक शर्त महिलाओं की सामाजिक दशा में सुधार प्रतिबिंबित हो रहा था। प्रगतिशील विचारकों का कहना था कि महिला सुधार से कई अन्य सामाजिक कुरीतियाँ स्वतः समाप्त हो जाएगी।

महिलाओं की दशा में सुधार के लिए दो मार्ग चुने गए :

  • प्रथम, सरकारी मिशनरी की सहायता से कानूनों का निर्माण कराकर तथा दूसरा परम्परागत प्रथाओं को प्रतिबंधित या उन्हें दंडनीय अपराध की सूची में लाकर लक्ष्य को प्राप्त करना और 
  • दूसरा, शिक्षा का विस्तार, प्रतीकात्मक प्रतीकों को अपनाकर, समाज में जागृति लाकर लक्ष्य को प्राप्त करना ।

ऐतिहासिक कालखण्ड के अध्ययन से पता चलता है कि स्त्रियों की दशा में सुधार के लिए सरकारी प्रयासों को महत्ता दिया गया। शिक्षा और जागृति जैसे कार्य द्वितीयक श्रेणी में रखे गए, क्योंकि महिलाओं की दशा में सुधार लाने के लिए इस्ट इंडिया कंपनी या अंग्रेजी सरकार ने समय-समय पर कई कानून पारित कर क्रियान्वित भी किया।उदाहरणस्वरूप-

1.1795 एवं 1804 में बंगाल रेग्युलेशन के आधार पर बाल कन्या हत्या को रोकने का प्रयास किया गया। जब इसमें अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो 1830 के दशक में इसे कड़ाई पूर्वक लागू किया गया।

2. राजा राममोहन राय के प्रयास से 1829 में सती प्रथा रोकथाम अधिनियम रेगुलेशन संख्या, 17 के तहत निर्मित किया गया, जो 1830 में संपूर्ण भारत में लागू हुआ। इस कानून के तहत किसी को सती होनें के लिए बाध्य करना या प्रोत्साहित करना या सती होना दण्डनीय अपराध था।

3.ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों से 1856 में लार्ड डलहौजी ने विधवा पुनर्विवाह अधिनियम कानून पारित किया, जिसके तहत विधवाओं की शादी वैद्य होती और उन्हें संपति एवं अन्य अधिकार दूसरी विवाहित नारियों के समान ही मिलते।

4.1872 में केशवचंद्र सेन के प्रयास से ब्रम्ह विवाह अधिनियम पारित हुआ। जिसके तहत अंतर्जातीय विवाह को मान्यता दी गई तथा लड़का-लड़की के विवाह का न्यूनतम उम्र क्रमशः 18 14 वर्ष निर्धारित किया गया। इसके माध्यम से बाल-विवाह को रोकनें तथा जातिवाद को कमजोर करने का प्रयास किया गया। इस कानून को सिविल मैरेज एक्ट भी कहते हैं।

 5.1891 में बीएम मालाबारी के प्रयत्नों से आयु सम्मति अधिनियम (एज ऑफ कंसेन्ट एक्ट) पारित किया गया। इसमें 12 वर्ष से कम उम्र के कन्याओं की शादी प्रतिबंधित की गई।

6.1930 में एज ऑफ कन्सेंट एक्ट में संशोधन कर लड़का-लड़की के विवाह का न्यूनतम उम्र क्रमशः 18 और 14 वर्ष निर्धारित किए गए। शारदा नामक महिला ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई, इसीलिए यह 'शारदा एक्ट' के नाम से भी जाना जाता है।
woman welfare work with mind map

 

सरकारी कानूनी प्रयासों के अलावें महिलाओं की दशा के सुधार लाने हेतु स्त्री शिक्षा पर भी बल दिया गया। जिसके माध्यम से इस प्राचीन अवधारणा को खंडित किया गया कि शिक्षित स्त्री को देवता वैद्यत्य (विधवा) का जीवन देते है।

नारी शिक्षा के लिए बंगाल एवं बंबई मुख्य सुधार केन्द्र के रूप में उभरे। कलकत्ता में 1819 में "वरूण स्त्री सभा" की स्थापना की गई। इसके अलावे जेई बेटन ने 1849 में कलकत्ता बालिका विद्यालय की स्थापना की, परंतु स्त्री शिक्षा में सबसे सराहनीय कार्य ईश्वरचंद्र विद्यासागर का रहा।

जिन्होंने महिला शिक्षा हेतु बंगाल में 35 से अधिक बालिका विद्यालय की स्थापना की तथा विधवा विवाह के लिए अनुकूल माहौल बनाया। बंबई में प्रो.डी. के. कर्वे, महादेव गोविन्द राणाडे ने अग्रणी भूमिका निभाई।

बंबई के एलिंघिसटन कॉलेज के विद्यार्थी स्त्री शिक्षा के अग्रदूत बनें। इन्होंने कई पुस्तकालय तथा वैज्ञानिक सभा की स्थापना किया। डी.के. कर्वे नें तो विदुर होने पर एक विधवा से शादी कर यह संदेश दिया कि नारी उत्थान के लिए सुधार आवश्यक है।

इन्होंने पूना में 1899 में विधवा आश्रम की भी स्थापना की। इसमें उच्च वर्ग की विधवाओं को रखकर उन्हें अध्यापिका, डॉक्टर, नर्स बनवाए। इनके प्रयासों से 1906 में बंबई में भारतीय स्त्री विश्वविद्यालय की स्थापना भी की गई।

भारतीय सुधारकों के बीच अंग्रेजी सरकार ने भी स्त्री शिक्षा पर बल दिया। सर्वप्रथम 1854 में प्रकाशित चालर्स वुड्सडिस्पैच में नारी शिक्षा की विस्तृत विवेचना मिलती है। इसके बाद हंटर आयोग ने भी स्त्री शिक्षा को आगे बढ़ाने का रोडमैप दिया।

भारत में महिलाओं के स्थिति से संबंधित आंदोलन पुनर्जागरण का मुख्य बिंदु रहा। इसे व्यापक समर्थन भी मिला, सरकारी संरक्षण भी प्राप्त हुये, परंतु इन सब के बावजूद महिला उत्थान की एक सीमा रही।

चूंकि महिलाओं की दशा के सुधार की पहल पुरूष प्रधान समाज के द्वारा की गई थी, इसलिए इस बात का ध्यान रखा गया कि महिलाओं की दशा में उतना ही सुधार हो जिससे पुरूष प्रधान समाज को क्षति न पहुंचे।

सरल शब्दों में कहें तो महिला उत्थान की बात तो की गई, परंतु महिला स्वाधीनता से परहेज किया गया। परिणामतः महिलाओं को अमानवीय अत्याचारो से राहत तो मिली, लेकिन समान प्राप्त नहीं हो सका।जो की वर्तमान समय में निरंतर जरी है |महिलओं के लिए भुत से योजना आज भी बनते है पर वो कभी भी पूरी तरह से धरातल पर नही उतरते है |जिससे की आज भी महिलओं की स्थिति दयनीय है पिछड़े इलाकों में ये आकडे और भी खराब है |




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