ऋग्वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में क्या अंतर है | mind map के साथ फ्री हिंदी pdf download


ऋग्वैदिक काल और उत्तर वैदिक काल में क्या अंतर है 

(इस प्रश्न को दूसरे तरीके से ऐसे भी लिखा जा सकता है :ऋग्वैदिक काल भारतीय इतिहास का अभ्युदय काल है,परंतु उत्तर वैदिक काल महान परिवर्तन का काल)

वैदिक सभ्यता वर्तमान हिन्दू संस्कृति के उत्पति का मूल आधार है। इसका समय काल विद्वानों ने 1500-600 BC निर्धारित किया है। जिसमें ऋगवैदिक काल की संकल्पना 1500-1000 BC के बीच दर्शायी गयी है।

इस दौर में मानव समुदाय (आर्य जाति) न केवल संगठित  हुआ, स्थायी जीवन शैली को जन्म दिया बल्कि सामाजिक-धार्मिक एवं आर्थिक जीवन-शैली की बुनियाद भी रखी जो आगे चलकर निरंतर परिवर्तनशील हुये। परंतु आज भी हिन्दू संस्कृति की मौलिकता वैदिक काल से ही जोड़कर देखी जाती है।

सामान्य शब्दों में कहे तो ऋग्वेदिक काल वैदिक सभ्यता का आरम्भिक युग था। जबकि उत्तरवैदिक काल आरम्भिक विशेषताओं में परिवर्तन करते हुए एक चिरस्थायी संस्कृति को प्रकट ने किया।

राजनीतिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो ऋग्वैदिक काल में आर्य एक कबिलाई जनसमूह थे। जो रक्तसंबंध पर संगठित थे। राजनीतिक गतिविधियों के संचालन में सभा समिति एवं विदत जैसी गणतांत्रिक संस्थाओं का महत्वपूर्ण योगदान था। राजा वंशानुगत नहीं होता था तथा उसके चयन का अधिकार समिति के पास था।

हालांकि आर्य संगठित होकर युद्ध में भाग लेते थे। जिसका उदाहरण परोसनी नदी के तट पर लड़ा गया दशराग्य युद्ध है। परंतु उत्तर वैदिक काल में उपरोक्त परंपरा में परिवर्तन हुआ तथा छोटे बड़े कबिलों का आपस में विलय आरंभ हो गया। जैसे भरत+पुरू = कुरू कबिला बना। इसी प्रकार क्रीवी+तुर्वस = पंचाल कबिला बना।

राजा के संदर्भ में पैतृक राजतंत्र एवं राजत्व की अवधारणा प्रकट हुयी। जिसका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में विस्तारपूर्वक मिलता है। राजत्व की अवधारणा बलवती बनाने के लिये वाजपेय, अश्वमेघ, राजसूय जैसे यज्ञ होने लगे, राष्ट्र की अवधारणा के साथ साम्राज्यवादी प्रवृति का भी जन्म हुआ।

सभा, समिति, विदथ जैसी संस्थायें अप्रासंगिक हुयी तथा इसका स्थान रत्निन (मंत्री समूह) लेने लगे। स्थायी सेवा का गठन आरंभ हुआ और बलि अनिवार्य कर के रूप में प्रकट हुआ। अर्थात् यह काल ऋगवैदिक संरचना में मूलभूत परिवर्तन का काल था।

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सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो ऋग्वैदिक काल में पितृ सतात्मक समाज की अवधारणा के बावजूद इस काल में स्त्रियों की दशा काफी बेहतर थी। लड़की की शादी रजस्वला धर्म के बाद ही होती थी। स्त्रिया विदुशी महिलायें थी। जो ऋग्वेद की रिचायें लिखती थी। संयुक्त परिवार का प्रथा था। विवाह जैसी संस्थायें थी। लेकिन समाज में बाल-विवाह, विधवा प्रथा, सति प्रथा जैसे बुराईयाँ नहीं थी।

आर्य जाति आर्य और अनार्य में बंटी थी और अनार्य दास और दसयु में बंटे हुये थे। ऋग्वेद के पुरूसुक्त में चार वर्णों के उत्पति का उल्लेख है।

लेकिन सामाजिक तौर पर इनकी मान्यता नहीं थी। आर्य शाकाहारी एवं मांसाहारी दोनों थे, परंतु उत्तर वैदिक काल सामाजिक परिवर्तन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस काल में आर्य-अनार्य, दास-दस्यु की भावना गौण हो गयी और आदि पुरूष वाला चतुवर्ण समाज में पूर्णरूपेण स्थापित हो गया और इनके कर्म भी स्पष्ट रूप से निर्धारित किये गये। इसमें सर्वोच्च स्थान ब्राम्हणों को मिला।

क्षत्रिय राजकीय परंपरा के हिस्सा बने तो वैश्य खाद्य उत्पादक वर्ग एवं सैन्य वर्ग के रूप में योगदान दिया। शुद्रों का कार्य अपने से ऊपरी वर्णों का सेवा करना था। इन पर कई सामाजिक प्रतिबंध भी थोप दिये गये। जैसे शुद्रो और स्त्रियों का उपनयन संस्कार पर रोक लगा देना। सगोत्र विवाह पर रोक लगयी गई।

मुख्य पत्नि को विशेषाधिकार का प्रचलन बढ़ाया गया। इस काल में बाल-विवाह, दहेज प्रथा, छुआ-छूत जैसी बुराईयाँ भी आंशिक तौर पर उभरने लगी। स्त्रियों के लिये इस काल में गिरावट का दौर देखा गया। ऐतरेय ब्राम्हण में पुत्र को कुल का रक्षक तो पुत्री को दुखः का कारण बताया गया। मैत्रायणी संहिता में तो इनकी तुलना पासा और सुरा से की गयी। लेकिन फिर भी गार्गी, वाचकनवी जैसे कुछ विदुषी महिलाओं का उल्लेख इस काल में हुआ। इसी काल में आश्रम प्रणाली का भी जन्म हुआ।

आर्थिक दृष्टिकोण से ऋग्वैदिक काल में आर्यों का मुख्य पेशा पशुपालन था, हालांकि वे कृषि कर्म को भी महत्व देते थे। गाय और घोड़ा इनके जीवन का मुख्य पशु था। घोड़ा युद्ध में विजय दिलाने वाला और गाय आर्थिक समृद्धि का प्रतिक था। आर्यो की संस्कृति ग्रामीण थी। हालांकि फिर भी दस्तकारी जीवन का आरंभ हो चुका था।

वस्तु विनिमय को महत्व दिया जाता था। फिर भी गाय, घोड़ा, निस्क्र का उपयोग लेन-देन में होता था। परंतु उत्तर वैदिक काल आर्थिक परिवर्तन की दृष्टि से युगांतकारी दौर था। इस काल में पहली बार चित्रित धुसर मृदभांड (PGW) का निर्माण आरंभ हुआ तथा पहली बार मानव लोहा धातु से न केवल परिचित हुआ बल्कि कृषि के क्षेत्र में इसका प्रयोग भी आरंभ किया।

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जिससे जंगलों की सफाई आसान हुयी, भूमि की गहराई से जोता जाने लगा और कृषि क्षेत्र में अधिशेष उत्पादन हो जाने से राजा को कर लगाने में तथा व्यापार के विकास में मदद मिली। इस काल में हमें अंतरजीखेड़ा, नोह, हस्तिनापुर जैसे स्थानों से लौह भंडार/उपकरण प्रचुर मात्रा में मिले हैं

साथ ही निष्क, शतमान, कृष्णल जैसे धातुओं को मुद्रा के रूप में प्रयोग आरंभ हुआ अब कृषि आर्यों का प्रधान पेशा बन गया। तैतरीय उपनिषद् में अन्न को 'ब्रम्ह' कहकर संबोधित किया गया। शतपथ ब्राम्हण में तो कृषि की चारो क्रियाओं (जुताई, बुआई, कटाई, मड़ाई) का उल्लेख मिलता है। इनसे स्पष्ट होता है कि कृषि आर्यों के जीवन का मुख्य हिस्सा बना और कृषि कर्म करना श्रेष्ठ कर्तव्य था।

धार्मिक दृष्टिकोण से आर्य ऋग्वैदिक काल में प्रकृति पुजक थे और उनकी धारणा एकेश्वरवाद में थी। देवताओं की तीन श्रेणी बनाई गई थी- पृथ्वी के देवता, अंतरिक्ष के देवता और आकाशीय देवता। देवताओं में प्रथम स्थान इन्द्र का, द्वितीय स्थान अग्नि का, और तृतीय स्थान वरूण का था।

इन्द्र को पुरंदर एवं रथेन्द्र कहा जाता था। ये युद्ध में विजय दिलाने वाले देवता थे। जबकि अग्नि को देवता और मानव के बीच मध्यस्थ माना गया है और वरूण नैतिकता के नियामक थे। धार्मिक जीवन में यज्ञ का शुरूआत हो चुका था।

उत्तर वैदिक काल में व्यापक धार्मिक परिवर्तन का दौर चला। आर्य एकेश्वरवादी के साथ-साथ बहुदेववादी हो गये। अग्नि, इन्द्र, वरूण का महत्व घटा और इसका स्थान ब्रम्हा, विष्णु और महेश अर्थात् त्रिदेव ने लिया। जिसमें ब्रम्हा उत्पतिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता तथा शिव को संहारकर्ता के रूप में प्रकाशित किया गया।

उषा, अदिति गौण हो गयी और यक्षिणी अप्सराओं का आविर्भाव हुआ। धार्मिक जीवन आडंबर युक्त बना, राजा और पुरोहित की महत्वाकांक्षा के कारण यज्ञ बेहद खर्चिले हुये। इसमें व्यापक नर-बलि और लंबे काल वाले यज्ञ को समर्थन मिला। एक यज्ञ की तैयारी एवं संपादन में पांच-पांच वर्ष बीत गये।

लेकिन इसी काल के अंत में यज्ञ, कर्मकांड की आलोचना हुयी और भक्ति के विचार को बढ़ाया गया। साथ ही षडदर्शन का विकास हुआ। भक्ति के विचारधारा का उदय इस काल की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी।

 

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