jpsc mains exam economics notes in hindi topic inflation and indian economy फ्री डाउनलोड पेपर 5 भारतीय अर्थव्यवस्था टॉपिक (मुद्रास्फीति और भारत )

 

jpsc mains exam economics notes in hindi

झारखण्ड लोक सेवा आयोग (JHARKHAND PUBLIC SERVICE COMMISSION (JPSC)




मुद्रास्फीति भारत की एक आम समस्या है।इसे  नियंत्रित करने के उपायों का उल्लेख करें |


 सामान्य अर्थों में मुद्रा स्फीति (अथवा मुद्रा प्रसार) वह स्थिति है जिसमें कीमत स्तर में वृद्धि होती है जबकि मुद्रा का मूल्य अर्थात् क्रय शक्ति कम होता है।

मुद्रास्फीति वह अवस्था है जब वस्तुओं की उपलब्ध मात्रा की तुलना में मुद्रा की मात्रा में अधिक वृद्धि होती है और परिणामस्वरूप मूल्य स्तर में निरन्तर व महत्वपूर्ण वृद्धि होती है।

कीन्स के अनुसार वास्तविक मुद्रा स्फीति पूर्ण रोजगार बिन्दु के बाद ही उत्पन्न होती है। पूर्ण रोजगार बिन्दु से पूर्व उत्पन्न होने वाली स्फीति आंशिक स्फीति कहलाती है, जो प्रेरणात्मक होती है।

मुद्रा स्फीति से अभिप्राय बढ़ती हुई कीमतों के क्रम से है, न कि बढ़ी हुई कीमतों की स्थिति से।

(i) अत्यधिक मुद्रा निर्गमन से उत्पन्न स्फीति को चलन स्फीति कहते हैं।

(ii) उदार ऋणनीति के फलस्वरूप व्यापारिक बैंकों द्वारा अत्यधिक साख निर्गमन के कारण उत्पन्न स्फीति को साख स्फीति कहा जाता है।

(iii) वस्तुओं एवं सेवाओं की तेजी से बढ़ती मांग और फलस्वरूप तेजी से बढ़ती मुद्रा की सक्रियता के कारण बढ़ने वाली कीमतें 'मांग प्रेरित स्फीति' उत्पन्न करती है।

(iv) वस्तुओं की उत्पादन लागत बढ़ जाने के कारण जब वस्तुओं की कीमतों को बढ़ाया जाता है तब इसे 'लागत प्रेरित स्फीति' कहा जाता है।

(v) बजट के घाटे को पूरा करने के लिए हीनार्थ प्रबन्धन के अन्तर्गत नए नोटो का छापा जाना मुद्रा की पूर्ति का विस्तार करता है जिससे कीमतों में वृद्धि होती है। इसे 'हीनार्थ प्रेरित स्फीति' या 'बजटीय स्फीति' कहा जाता है।

(vi) अवमूल्यन के फलस्वरूप निर्यात बढ़ने तथा देश में आन्तरिक पूर्ति घट जाने से वस्तुओं की कीमतें बढ़ने लगती हैं जिससे अवमूल्यन जनित स्फीति उत्पन्न होती है।





मुद्रास्फीति के बारे में सामान्य अवधारणा यह है कि यह एक बुराई है। परंतु समेकित अध्ययन करता है कि हल्की मुद्रास्फीति अर्थव्यवस्था के सेहत के लिये अच्छी होती है, क्योंकि यह उत्पादक वर्ग में उत्पादन के प्रति उत्साह कायम रखती है। 

वर्तमान समय में रिजर्व बैंक भी इस बात पर गंभिरता से विचार कर रहा है कि अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की दर को लक्ष्य बनाया जाय। अर्थात् मुद्रास्फीति की दर को लक्ष्य बनाया जाय। अर्थात् मुद्रास्फीति को एक दर से उपर अथवा नीचे नहीं रहनें दिया जाय।

 इस संदर्भ में आर बी आई ने अर्जित पटेल समिति बनायी थी। इसने सिफारिश की है कि आर.बी.आई 4 प्रतिशत की मुद्रास्फीति दर को अपना लक्ष्य बना सकती है। साथ ही कमेटी ने कहा है कि इस पर निगरानी के लिये Monetary Policy Committee- MPC गठित की जाय। जो एक उतरदायी संस्था रहे।

भारत में मुद्रास्फीति के पर नियंत्रण के लिये सामान्यतः तीन कदम उठाये जाते है-

1. मौद्रिक नीति

2. राजकोषीय नीति और

3. कीमत नीति या अन्य उपाय।


देश में मुद्रा की पूर्ति के नियंत्रण से संबंधित उपाय को मौद्रिक उपाय कहते हैं। जिसका भारत में संचालन अगर बीआई करता है।

सामान्यतः यह माना जाता है कि बाजार में मुद्रा की अधिकता होने के कारण मुद्रा का मूल्य घटता है और वस्तु की कीमत बढ़ जाती है।

 ऐसे में आरबीआई अपने कई कदम उठा कर बाजार से मुद्रा निकालता ताकि मुद्रा का अभाव होने से व्यक्तियों की क्रय क्षमता घटे और आपूर्ति में संतुलन बना रहे। बाजार से मुद्रा निकासी के लिये आर बी आई निम्न कदम उठा सकती है-

(a) बैंक दर में वृद्धि

(b) नकद आरसी अनुपात (CRR) में वृद्धि

(c) सीमांत कटौती (MSF) में वृद्धि करना।

(d) खुले बाजार में प्रतिभूतियों को बेचना आदि।

राजकोषीय उपायो के तहत सार्वजनिक व्यय, कराधान, घरेलू सार्वजनिक ऋण में वृद्धि जैसे उपायों को शामिल किया जाता है। सरकारें मुद्रास्फीति का नियंत्रण करने के लिये सड़क निर्माण, नहर एवं बांध निर्माण, स्कूल एवं अस्पताल निर्माण जैसे कामों पर ।

सार्वजनिक निवेश को कम रखती है, ताकि सरकार माँग में कमी आने से समग्र माँग में भी कमी आएगी। इसी प्रकार सरकार कई प्रकार के करो की दरों में वृद्धि भी करती है। 

ताकि लोगों का प्रयोज्य आय कम हो जाय। इससे भी लोगों की क्रय क्षमता घटेगी और कीमतें नियंत्रित होंगी। सरप्लस बजट बनाकर के भी सरकार कीमतो पर नियंत्रण रखती है। यह वह नीति है जिसमें सरकारी व्यय सरकारी आय से कम होती है।

कीमत नीति से अभिप्राय अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतो को निर्देशित, नियमित और नियंत्रित करने से है, इसके तहत वस्तुओं का अभाव भी चूकि मुद्रास्फीति का कारण है, अतः उत्पादन में वृद्धि करना इसका सर्वोत्तम उपचार है। 

साथ ही सरकारें अनिवार्य वस्तुओं की कीमत नियंत्रण के लिये नीतियों का निर्माण भी कर सकती है। वसूली कीमत-समर्थन मूल्य को उचित सीमा के अंदर रखकर भी कीमते नियंत्रित की जा सकती है। इसके अलावे सरकार को कृषि आय पर कर लगाना चाहिये तथा जमा खोरी रोकने हेतु कड़े कानून एवं उसका क्रियान्यवन करना चाहिये।

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि मुद्रास्फीति एक बेहद संवेदनशील है। जहाँ कारक (एक ही) को प्रभावी एवं नियंत्रित करना पड़ता है। ऐसे में चातुर्यपूर्ण संतुलन नीति जो आय वृद्धि को बढ़ायेउत्पादन को बढ़ाये, लेकिन व्यक्तियों के क्रय क्षमता को सीमित रखे, ही प्रभावशाली विकल्प है।

 

 भारतीय वित्तीय प्रणाली(Indian Financial System)

भारतीय वित्तीय प्रणाली का अभिप्राय राशियों को उधार पर लेना और उन्हें उधार पर देना है; अथवा इस प्रणाली के माध्यम से सभी व्यक्तियों, संस्थानों, कम्पनियों और सरकारों द्वारा धन-राशियों की मांग और पूर्ति की जाती है। सामान्यतः वित्तीय प्रणाली में वित्त के चार प्रभाग हैं। यथा-

1. औद्योगिक वित्त (Industrial Finance)

2. कृषि वित्त (Agriculture Finance)

3. विकास वित्त (Development Finance)

4. राजकीय वित्त (Government Finance) |

भारतीय वित्तीय प्रणाली के दो अंग है। यथा-

1. भारतीय मुद्रा बाजार या साख बाजार

2. भारतीय पूँजी बाजार

भारतीय मुद्रा बाजार (Indian Monetary Market) वह बाजार है जिसमेंअल्पकालीन (सामान्यतः एक वर्ष से कम अवधि) राशियों (short term funds) के रूप में उधार लिया जाता और उधार दिया जाता है। इसके विपरीत भारतीय पूँजी बाजार (Indian Capital Market) मध्यमकालीन एवं दीर्घ कालीन राशियों (Funds) के लिए होता है।

• RBI अधिनियम, 1934 के अधीन बैंकों को अनुसूचित बैंकों (Scheduled Banks) और गैर-अनुसूचित बैंकों (Non-Scheduled Bank) में वर्गीकृत किया गया है।

अनुसूचित बैंक ऐसे बैंक हैं जो भारतीय रिजर्व बैंक की द्वितीय अनुसूची में 1934 के कानून के अधीन दर्ज किये गये हैं। इनकी परिदत्त पूँजी (paid-up capital) और रिजर्व लाख रुपये से कम नहीं होती और इन्हें R.B.I. को इस बारे में सन्तुष्ट करना होता है कि इनका कार्यकलाप जमाकर्ताओं के हितों के अनुरूप किया जा रहा है। सभी वाणिज्य बैंक- भारतीय या विदेशी, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक और राज्य सहकारी बैंक अनुसूचित बैंक हैं।

गैर-अनुसूचित (Non-Scheduled) बैंक वे बैंक है जो R.B.I. अधिनियम, 1934 की दूसरी अनुसूची (Second Sched- बैंक में शामिल नहीं किये गये हैं। आज देश में केवल तीन गैर-अनुसूचित बैंक हैं।

परम प्रतिभूति बाजार (Gilt-edged Market) सरकारी एवं अर्द्धसरकारी प्रतिभूतियों का बाजार है जिस पर एक निश्चित ब्याज दर प्राप्त होती है।

औद्योगिक प्रतिभूति बाजार निगम क्षेत्र की कम्पनियों की हिस्सा-पूँजी और ऋण पत्रों (Debentures) से सम्बन्धित हैं।

इस बाजार के दो वर्ग हैं। यथा-

1. प्राथमिक बाजार (Primary Market)- नये पूँजी, हिस्सों एवं ऋण-पत्र हेतु ।

2. द्वितीयक बाजार (Secondary Market)- इस बाजार को आमतौर पर स्टॉक बाजार या स्टॉक एक्सचेंज कहते हैं।


वित्तीय स्थिरता एवं विकास परिषद (FSDC)

स्थापना : दिसम्बर, 2010

उद्देश्य वित्तीय क्षेत्र के विकास, स्थिरता, अन्तर नियामकीय समन्वय को बढ़ाना तथा इसे संस्थागत स्वरूप प्रदान करना ।

संरचना : इस परिषद का अध्यक्ष केन्द्रीय वित्त मंत्री होता है जबकि इसके सदस्यों में वित्त सचिव, आर्थिक मामलों के सचिववित्तीय सेवा विभाग के सचिव, मुख्य आर्थिक सलाहकार और वित्तीय नियामकों : R.B.I., सेबी, इरडा, PFRDA एवं F.M.C. के प्रमुख शामिल होते हैं। यह संस्था अर्थव्यवस्था के मैक्रो प्रूडेंसियल (समष्टि सविवेक) पर्यवेक्षण का निरीक्षण (मॉनिटरिंग) करता है।






 

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