jpsc मैन्स नोट्स फ्री पीडीएफ डाउनलोड पेपर 3 भूगोल टॉपिक (भारत को भौतिक प्रदेशों में विभक्त कर मानचित्र सहित उनका वर्णन कीजिए )

 

JPSC MAINS NOTES IN HINDI


प्रश्न :भारत को भौतिक प्रदेशों में विभक्त कर मानचित्र सहित उनका वर्णन कीजिए ।

(Divide India into physical divisions and describe them with maps.)

उत्तर- भू-आकृतियों की विविधता के आधार पर भारत को निम्नलिखित 5 भौतिक प्रदेशों में विभक्त किया जा सकता है-

उत्तर के विशाल पर्वत

(ii) उत्तर भारत का मैदान

(iii) प्रायद्वीपीय पठार

(iv) तटीय मैदान

(v) द्वीप समूह

हिमालय पर्वतमाला पश्चिम में सिंधु घाटी से लेकर पूर्व में ब्रह्मपुत्र तक विस्तृत है |एक उन्नतोदर चाप बनाती हुई ये लगभग 2,400 किलोमीटर का रास्ता तय करती है ।

इसकी चौड़ाई पश्चिम में 400 किलोमीटर से पूर्व में 150 किलोमीटर के बीच है।

हिमालय नवीन वलित पर्वत है । इनमें तीन स्पष्ट पर्वत-श्रेणियाँ हैं जो एक-दूसरे के समानांतर फैली हैं। इनमें सबसे उत्तर वाली श्रेणी को 'विशाल' अथवा 'आंतरिक हिमालय' अथवा 'हिमाद्रि' कहते हैं । इसकी औसत ऊँचाई 6,000 मीटर है और हिमालय के सभी प्रमुख शिखर इसी श्रेणी में हैं जैसे-मांउंट एवरेस्ट, (नेपाल) कांचनजंगा (सिक्किम, भारत) आदि ।

हिमाद्रि के दक्षिण में 'मध्य हिमालय' अथवा 'हिमाचल श्रेणी' स्थित है। इनकी औसत चौड़ाई 50 किलोमीटर तथा ऊँचाई 3,700 से 4,500 मीटर है। पीर पंजाल, धौलाधर तथा महाभारत श्रेणियाँ इसी भाग में हैं। उत्तरी भारत के सभी महत्त्वपूर्ण नगर-धर्मशाला,डलहौजी, शिमला, मसूरी तथा दार्जीलिंग इन्हीं श्रेणियों पर स्थित हैं।

बाह्य हिमालय अथवा शिवालिक श्रेणियाँ मध्य हिमालय श्रेणियों के दक्षिण में 10 से किलोमीटर की चौड़ाई में स्थित हैं जिनकी ऊँचाई 900 से 1,100 मीटर के बीच हैं

ये श्रेणियाँ ठोस अवसादों वाली शैलों से नहीं बनी हैं । अतः यहाँ प्रायः भूस्खलन होता रहता है। अनेक स्थानों पर शिवालिक श्रेणियों तथा मध्य हिमालय श्रेणियों के बीच समतल घाटियाँ पाई जाती हैं। ये कंकड़, पत्थरों तथा अवसादों के गहरे निक्षेपों से ढकी हुई हैं और इन्हें 'दून' कहते हैं, जैसे, देहरादून तथा पाटलीदून ।

हिमालय की पर्वत श्रेणियों को पश्चिम-पूर्व दिशा में चार भागों में विभक्त किया जाता है। पश्चिमी भाग सिंधु और सतलज नदियों के बीच जम्मू-कश्मीर तथा हिमाचल प्रदेश में फैला है, इसे 'पंजाब हिमालय' कहते हैं । जम्मू-कश्मीर की पीर-पंजाल श्रेणियों में सुप्रसिद्ध पर्वतीय पर्यटक स्थल गुलमार्ग तथा पहलगाम है । सतलज तथा काली नदियों के बीच के भाग को 'कुमायूँ हिमालय' कहते हैं । 

यह उत्तरांचल में अवस्थित है । इसी प्रकार काली तथा तिस्ता नदी के बीच के भाग को 'नेपाल हिमालय' कहते हैं और तिस्ता तथा दिहांग (सांगपो) नदियों के बीच के भाग को 'असम हिमालय' ये मुख्यतः अरुणाचलप्रदेश में स्थित है ।

हिमालय पर्वत श्रेणियों में अनेक महत्त्वपूर्ण दरें भी हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर शिपकीला, नाथूला तथा बोमडिला महत्त्वपूर्ण दरें हैं।

(ii) उत्तर भारत का मैदान- इस विस्तृत मैदान का निर्माण उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में प्रायद्वीपीय पठार से निकलने वाली नदियों द्वारा लाकर जमा की गई जलोढ़ गाद से हुआ है । यह लगभग एक सपाट मैदान है और इसके उच्चावच में बहुत कम अंतर है |यहाँ की उपजाऊ मृदा उपयुक्त जलवायु तथा पर्याप्त जलापूर्ति कृषि कार्य के विकास में बहुत सहयोगी है। यह मैदान सिंधु नदी के मुहाने से लेकर गंगा-ब्रह्मपुत्र के मुहाने तक लगभग 3,200 किलोमीटर दूरी में विस्तृत है। इसकी चौड़ाई 150 किलोमीटर से 300 किलोमीटर के बीच है | पूर्व की ओर यह संकरा हो जाता है। उत्तरी मैदान को पश्चिम में सिंधु नदी तंत्र तथा पूर्व में गंगा-ब्रह्मपुत्र नदी तंत्र के मैदानों में विभक्त किया जाता है|

सिंधु तथा इसकी सहायक झेलम, चेनाब, रावी, व्यास, तथा सतलुज नदियाँ हिमालय क्षेत्र से निकलती हैं। सिंधु नदी पश्चिमी की ओर प्रवाहित होते हुए तेज मोड़ बनाकर

दक्षिण की ओर बढ़ती हुई अरब सागर में गिरती है। पाँच नदियों से निर्मित मैदान को पंजाब कहते हैं। इस मैदान का बड़ा भाग पाकिस्तान में स्थित है |



गंगा नदी उत्तरी मैदान में हरिद्वार में प्रवेश करती है और फिर पूर्व की ओर बहती है |

समुद्र तक पहुँचने में इसमें अनेक सहायक नदियाँ, उत्तर तथा दक्षिण से आकर मिलती है।

यह भारत के उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिमी बंगाल, अरुणाचल प्रदेश, असम राज्यों से गुजरती है। बांग्लादेश पहुँचने पर ब्रह्मपुत्र से मिलती है। इन दोनों की संयुक्त धारा को 'मेघना' के नाम से जाना जाता है ।

उच्चावच के अंतर के आधार पर मैंदानी भाग को भी (i) भाबर (ii) तराई (iii) बांगर(iv) खादर भगों में विभाजित किया जाता है। सिंधु नदी से तिस्ता नदी तक शिवालिक

पहाड़ियों के गिरिपाद प्रदेश में कंकड़-पत्थरों की एक पतली पेटी पाई जाती है । यह कंकड़-पत्थरों की पेटी लगभग 8 से 16 किलोमीटर चौड़ी है और इसे भाबर कहते हैं |

भाबर से लगा हुआ तराई क्षेत्र है जहाँ विविध वन्य जीव पाए जाते हैं। मैदानों की पुरानी जलोढ़ को बांगर' कहते हैं । निरंतर जलोढ़ के जमाव के कारण यह एक चबूतरा जैसा बन जाता है जो बाढ़ के मैदान से ऊँचा होता है। बाढ़ के मैदानों की नवीन जलोढ़ को खादर कहते हैं ।

(iii) प्रायद्वीपीय पठारयह देश का सबसे प्राचीन भू-भाग है । इस त्रिभुजाकार क्षेत्र का आधार उत्तर की ओर दिल्ली की कटक (Redge) तथा राजमहल पहाड़ियों के बीच है। भूगर्भविज्ञान की दृष्टि से शिलांग का पठार इस क्षेत्र का ही एक विस्तार है । इसका शीर्ष दक्षिण में कन्या कुमारी द्वारा बनता है। पठार की सामान्य ऊँचाई 600 से 900 मीटर तक है । इसके उत्तरी भाग का ढाल उत्तर तथा पूर्व की ओर है। सतपुड़ा-मैकाल श्रेणियों के दक्षिण में इसका ढाल पूर्व तथा दक्षिण पूर्व की ओर है ,परंतु दक्कन के उत्तर पश्चिम वाले क्षेत्र का जल पश्चिम ओर प्रवाहित होने वाली नदियों में बहता है |

इस पठार को दो उप-भागों में विभाजित किया जा सकता है :

(क)    मध्यवर्ती उच्चभूमि – पठार का उत्तर- पश्चिम भाग अरावली पहाडियों (द .पू में गुजरात से लेकर उत्तर-पूर्व में दिल्ली तक विभिन पहाडियों के रूप में ) से घिरा है | जिनके पश्चिम में शुष्क थार मरुभूमि का क्षेत्र है | मध्यवर्ती उच्च भूमि की दक्षिण सीमा विन्ध्याचल पर्वतों तथा उनके पूर्वी विस्तार कैमूर पहाडियों से निर्धारित होती है | अरावली तथा विन्ध्याचल के बीच विस्तृत मालवा पठार स्थित है | उच्च भूमि के उत्तर-पूर्वी भाग को बुंदेलखंड कहते हैं। सोन नदी से पूर्व का छोटानागपुर पठार के साथ-साथ राजमहल की पहाड़ियाँ, शिलांग का पठार भी प्रायद्वीपीय पठार का ही भाग है।

(ख) दक्कन का पठार- यह पठार उत्तर में सतपुड़ा, महादेव तथा मैकाले पहाड़ियों से दक्षिण की ओर प्रायद्वीप के दक्षिणी सिरे तक विस्तृत है। पठार का उत्तरी-पश्चिमी भाग मुख्यतया लावा निक्षेपों से निर्मित है । पश्चिम की ओर इसकी सीमा पश्चिमी घाटों द्वारा निर्धारित होती है, जो अरबसागर के सहारे लगभग अविछिन्न रूप में उत्तर -दक्षिण दिशा में फैले हैं। इनके अनेक स्थानीय नाम हैं। महाराष्ट्र-कर्णाटक में इन्हें सहयाद्रि, तमिलनाडु में नीलगिरि एवं केरल तमिलनाडु सीमा पर अन्नामलाई और कार्डामम (इलायची) पहाड़ियों के नाम से पुकारा जाता है। बहुत कम ऊँचाइयों वाली टूटी-फूटी पहाड़ियाँ (महेन्द्रगिरि, नल्लामल्ला, पालकोंडा आदि) टूटी शृंखला के रूप में इस पठार की पूर्वी सीमा बनाती है। इन्हें पूर्वी घाट कहते हैं ।

(iii) तटीय मैदान- इसे पश्चिमी तथा पूर्वी तटीय मैदानों में विभक्त किया जाता है | पश्चिमी तटीय मैदान गुजरात से केरल तक फैला है नर्मदा, ताप्ती के ज्वारनदमुखों,

अनेक अच्छे प्राकृतिक पोताश्रयों (मुंबई, मार्मागावा), सुदूर दक्षिण में लैगून झीलों से युक्त इस मैदान को कोंकण-मालाबार का मैदान के नाम से भी जाना जाता है।

पूर्वी तटीय मैदान अपेक्षाकृत अधिक चौड़ा है । यहाँ कावेरी, कृष्णा, गोदावरी व महानदी नदियों के डेल्टाक्षेत्रों में अवसादी निक्षेप काफी गहरे हैं । दक्षिणी आंध्र प्रदेश तथा तमिलनाडु के तट को कारोमंडल तट के नाम से जाना जाता है ।

(iv) द्वीप समूह- लक्षद्वीप-अरबसागर में केरल तट से थोड़ी दूर पर स्थित अनेक छोटे द्वीपों को मिलाकर बना है। प्रवाल (मूंगे) के निक्षेपों से बने इन द्वीपों को 'एटाल कहा जाता है । मूल रूप से यह शब्द मलयाली शब्द 'एटोलू' से लिया गया है।

दूसरी ओर अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह आकार में अपेक्षाकृत बड़े तथा विस्तृत हैं। ये द्वीप निमज्जित पर्वत श्रेणियों के शिखर हैं। इनमें से कुछ ज्वालामुखी पर्वत द्वारा भी बने हैं। लगभग 350 किलोमीटर की दूरी में फैले ये द्वीपसमूह देश की सामरिक सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं |

विभिन्न भू-आकृति विभागों का विस्तृत विवरण प्रत्येक विभाग की विशेषताएँ स्पष्ट करता है। परंतु यह स्पष्ट है कि ये विभाग एक-दूसरे के पूरक हैं और वे देश को

प्राकृतिक संसाधनों में समृद्ध बनाते हैं। उत्तरी पर्वत जल एवं वनों के प्रमुख स्रोत हैं। उत्तरी पर्वत जल एवं वनों के प्रमुख स्रोत हैं। उत्तरी मैदान देश के अन्न का भंडार है। यहाँ प्राचीन सभ्यताओं के विकास को आधार मिला है। पठारी भाग खनिजों का भंडार है|

जिसने देश के औद्योगीकरण में विशेष भूमिका निभाई है। तटीय क्षेत्रों में मछली पकड़ने और पोताश्रयों संबंधी केन्द्र स्थापित हैं। इस प्रकार देश की विविध भौतिक आकृतियाँ भविष्य में विकास की अनेक संभावनाएँ प्रदान करती हैं।

 

            




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