JPSC MAINS NOTES पेपर 3 भूगोल टॉपिक (भारत में बहुद्देशीय परियोजनाओं के विरुद्ध आंदोलन) Q&A हिंदी में फ्री पीडीएफ डाउनलोड
प्रश्न :भारत में बहुद्देशीय परियोजनाओं के विरुद्ध आंदोलन की प्रासंगिकता का आलोचनात्मक परीक्षण करें।
(Examine Critically the relevance of movements against multipurpose Projects in India.)
उत्तर- एक-साथ अनेक संसाधनों की प्राप्ति के उद्देश्य से किसी नदी-घाटी के जल-संसाधन के समन्वित विकास की योजना को ही बहुद्देशीय नदी घाटी परियोजना के नाम से जाना जाता है। सम्पूर्ण विश्व में नदियों के जल के अधिकाधिक उपयोग के लिए इसी योजना का क्रियान्वयन होता रहा है।
भारत में भी भाखाड़ानंगल परियोजना, के क्रियान्वयन द्वारा जलसंसाधन के अधिकतम एवं बहुद्देशीय उपयोग को सुनिश्चित किया जाता रहा है। इन परियोजनाओं से एक साथ कई उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है जो इस प्रकार है-
(i) आजादी के पूर्व
की भीषणतम समस्याओं-बाढ़ और सूखा की विभीषिका को कारगर तरीके से कम किया जा सका है |
(ii) विश्व के
सर्वश्रेष्ठ नहरों का जल बिछाकर सिंचाई सुविधा का निरन्तर बिस्तार किया जाता रहा है।
(iii) उपरोक्त दोनों
सुविधाओं से कृषि क्षेत्र के बिस्तार, उत्पादन एवं उत्पादकता में वृद्धि करने में सुविधा मिली है। अकाल
(खाद्यान्न अभाव) जलकाल (जल की कमी),तिनकाल (चारे की कमी) यानी त्रिकाल पर प्रभावी नियंत्रण
स्थापित किया जा सकता है ।
हरित क्रांति संपन्न हो सकी है और भारत खाद्यान्न मामले में
न केवल आत्मनिर्भर बना है। बल्कि बड़ा निर्यातक बनकर भी उभरा ।
(iv) जल विद्युत ऊर्जा
का स्वच्छ और प्रदूषण मुक्त रूप है। इसका बड़ी मात्रा में उत्पादन संभव हो सका है।
(v) नौ-परिवहन
प्रणाली एवं मत्स्यपालन उद्योग को प्रोत्साहन मिला है।
(vi) नदियों पर निर्मित बांधों के जल ग्रहण क्षेत्रों में योजनाबद्ध तरीके से वृक्ष लगाए जाते हैं। वृक्षों प्राकृतिक परिस्थितिकी को संरक्षण प्रदान करते हैं। वृक्षों के द्वारा बांधों, झीलों, नदी की धाराओं तथा सिंचाई के लिए निर्मित नहरों में गाद अथवा मिट्टी के एकत्रित होने को भी रोका जाता है।
ये वृक्ष बांधों के होने को भी रोका जाता
है। ये वृक्ष बांधों के जीवन को दीर्घायु प्रदान करते हैं और उन्हें आर्थिक दृष्टि
से ज्यादा लाभप्रद बनाते हैं। वृक्षों के घने हो जाने के बाद वन्य जीवों को इन क्षेत्रों में अभय
निवास मिल जाता है।
(vii) घरेलू उपयोग के
लिए जलापूर्ति की व्यवस्था ।
(viii) बड़ी मात्रा में
रोजगार अवसरों का सृजन ।
(ix) पर्यटन केन्द्र
के रूप में विकास (प्राकृतिक सौंदर्य को बढ़ जाने से)
(x) औद्योगिकीकरण को
प्रोत्साहन ।
इस प्रकार बहुद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं से अनेक लाभ
मिलते रहे हैं लेकिन इनसे उभरने वाली समाजार्थिक-पर्यावरणीय समस्याओं के मद्देनजर सामाजिक
कार्यकर्ताओं पर्यावरणविदों एवं स्वयंसेवी संगठनों द्वारा इन परियोजनाओं के विरोध में
आंदोलन भी होते रहे हैं इन आंदोलनों के प्रमुख कारण इन परियोजनाओं से उभरने वाली निम्नलिखित समस्याएँ हैं-
(i) पर्यावरण को
क्षति एवं पारिस्थितिकीय असंतुलन-इन परियोजनाओं के निर्माण के क्रम में बड़े पैमाने पर जंगल एवं
कृषि योग्य भूमि का प्रयोग किया जाता है| महत्त्वपूर्ण वनस्पतियों एवं जीव-जन्तुओं
का विनाश होता है। जलजमाव होने से दलदली भूमि का विकास होता है भूमि में लवणता बढ़ती है और भूमि
अनुर्वर होने लगती है।
(ii) जल जमाव वाले
क्षेत्रों में दलदली भूमि में कई रोगों के कीटाणु, मच्छड़, आदि उत्पन्न होते हैं जो मलेरिया जैसे महामारी के प्रकोप को
बढ़ाते हैं।
(iii) नदियों के धारा
में भी परिवर्तन की आशंका बढ़ जाती है फलत: आस-पास बाढ़ जैसी विभीषिका का भी खतरा उत्पन्न हो जाता है।
(iv) प्राकृतिक प्रकोप जैसे भूकंप की संभावना- अगर भारत की विभिन्न नदी परियोजनाओं पर ध्यान दिया जाय तो इससे यह स्पष्ट होता है कि भारत की अधिकांश भूकम्पकारी घटनाएँ किसी-न-किसी बाँध से संबंधित है। इस प्रकार की मान्यता का सर्वप्रथम सूत्रपात 11 दिसम्बर 1967 को कोयना गनर में आए भूकम्प से हुआ माना जाता है।
इससे पूर्व सभी भूगर्भवेत्ताओं की मान्यता थी कि प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकम्पकारी घटनाएँ नहीं उत्पन्न होंगी क्योंकि यह एक प्राचीन धरातल है जो पृथ्वी की चट्टानों के साथ सामंजस्य स्थापित कर चुका है। टिहड़ी एवं नर्मदा घाटी परियोजनाओं से इन क्षेत्रों में भूकम्प की संभावना बढ़ गयी है। ऐसी स्थिति में बाँध टूट सकता है और भारत का बड़ा भौगोलिक क्षेत्र जलमग्न हो जाएगा जिससे जान-माल की अपार क्षति होगी |
(v) इन परियोजनाओं
में काफी पूँजी और समय का व्यय होता है जिनकी तुलना में मिलने वाला लाभ कम होता है।
(vi) विशाल जन-विस्थापन की समस्या परियोजनाओं के निर्माण के क्रम में लाखों लोग विस्थापित होते हैं लेकिन उनके समुचित पुनर्वास पर गंभीरतापूर्वक ध्यान नहीं दिया जाता है। स्थानीय लोगों को जल-जमीन-जंगल से वंचित होना पड़ता है।
पुनर्वास की समस्या विरोध का एक अहम मुद्दा है। परियोजनाओं के ऋणात्मक प्रभाव को कम करने पर ध्यान नहीं दिया जाता है।
बहुदेशीय बांध से प्राप्त जल का विभिन्न राज्यों के वितरण एक कठिन समस्या है।
इस बँटवारे को लेकर अन्तरर्राज्यीय विवाद चलते रहते हैं।
बड़े बांधों में तलहर जमाव एवं वाटर लॉगिंग के कारण इन परियोजनाओं की आयु बहुत अधिक नहीं
होती।
इस प्रकार बहुद्देशीय परियोजनाओं से जुड़ी पुनर्वास, पर्यावरण विनाश, पारस्थितिकीय असंतुलन, पुंजीगहन, प्राकृतिक प्रकोप आदि की
समस्याओं के मद्देनजर मध्यम और लघु परियोजनाओं की माँग बढ़ती जा रही है। फिर भी भारत जैसे
विकासशील देश में, जो तेजी से आर्थिक महाशक्ति के
रूप में उभर रहा है, बहुद्देशीय
परियोजनाओं से मिलने वाले लाभों की अनदेखी करना उचित नहीं होगा। जरूरत इस बात की है कि इन
परियोजनाओं का निर्माण करते वक्त इसके ऋणात्मक प्रभाव को न्यूनतम करने के मानदण्डों का
समुचित पालन हो, विस्थापित लोगों के
पुनर्वास पर गंभीरतापूर्वक कार्य किया जाय।
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