jpsc मैन्स नोट्स फ्री पीडीएफ डाउनलोड (पेपर 4 ) Q&A टॉपिक राज्यपाल की शक्तियां
प्रश्न: राज्यपाल की शक्तियों की विवेचना करें तथा झारखण्ड में वर्तमान घटनाओं के संदर्भ में उसकी भूमिका की व्याख्या करें ।
(Discuss the power of the Governor and explain his
role with reference to the recent development in jharkhand .)
उत्तर- भारतीय संघ में केन्द्र
की तरह राज्यों की शासन व्यवस्था भी संसदीय प्रणाली पर आधारित है। जिस प्रकार केन्द्र में
कार्यपालिका की शक्ति राष्ट्रपति में निहित होती है ठीक उसी प्रकार राज्यों में कार्यपालिका शक्ति
रज्यपाल में निहित है। राज्य में समस्त कार्यवाहियाँ उसी के नाम से की जाती है राज्यों का शासन
राज्यपाल द्वारा एक लोकप्रिय तथा उत्तरदायी मंत्रिपरिषद् की सहायता से चलाया जाता है ।
जहाँ तक राज्यपाल की शक्तियों का प्रश्न है तो कहा जा सकता
है कि संविधान के द्वारा कार्यपालिका, विधायी, वित्तीय, न्यायिक और कई अन्य तरह
की शक्तियाँ और कार्य प्रदान की गई है ये शक्तियाँ निम्नलिखित हैं :-
(i) कार्यपालिका संबंधी शक्तियाँ या
कार्य- राज्यपाल राज्य सरकार के प्रशासन का अध्यक्ष है तथा राज्य की कार्यपालिका संबंधी
शक्ति का प्रयोग वह अपने अधीनस्थ प्राधिकारियों के माध्यम से कराता है । वह सरकार
की कार्यवाही संबंधी नियम बनाता है तथा मंत्रियों में कार्यों का विभाजन करता है। मुख्यमंत्री तथा
मुख्यमंत्री के सलाह से उसके मंत्रिपरिषद् के सदस्यों को नियुक्त करता है तथा उन्हें पद
एवं गोपनीयता की शपथ दिलाता है।
राज्यपाल राज्य के उच्चाधिकारियों जैसे-महाधिवक्ता, राज्यलोकसेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की
नियुक्ति करता है, राज्य में उच्च
न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है तथा राज्य में उच्च न्यायालय में
न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में
राष्ट्रपति को परामर्श देता है ।
जब राज्य का प्रशासन संविधान के अनुसार न चलाया जा सके तो
राज्यपाल राष्ट्रपति से राज्य में अनुच्छेद 356 के तहत राष्ट्रपति शासन लागू करने की सिफारिश कर सकता। जब
राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया जाता है तब राज्यपाल केन्द्र सरकार के अभिकर्ता
के रूप में राज्य का प्रशासन चलाता है ।
(ii) विधायी अधिकार- राज्यपाल राज्य
विधान मंडल का एक अभिन्न अंग विधायिका के संबंध में निम्न अधिकार प्राप्त हैं-वह राज्य
विधान मंडल के सत्र को आहूत
करता है स्थगित करता है और राज्य विधान सभा को भंग कर सकता
है । वह राज्य विधानपरिषद् के कुल सदस्य संख्या के 1/6 भाग सदस्यों, जिनका विज्ञान, कला, साहित्य,समाजसेवा एवं सहकारिता आंदोलन आदि के क्षेत्र में विशेष
ज्ञान, अनुभव या योगदान
हो,को नियुक्त करता है। वह
राज्य विधान सभा में प्रतिनिधित्व न मिलने की स्थिति में आंग्ल भारतीय समुदाय के एक
व्यक्ति को नियुक्त कर सकता है।
वह प्रत्येक आम चुनाव के बाद प्रारंभ होने वाले तथा
प्रत्येक वर्ष के प्रथम विधानमंडल के सत्र को संबोधित करता है तथा सदनों को अपना
संदेश भी प्रेषित करता है
विधायी शक्ति के अन्तर्गत राज्यपाल को सबसे महत्त्वपूर्ण
शक्ति है-राज्य विधानमंडल सत्र में न हो तथा संविधान मंडल सत्र में न हो तथा
संविधान की 7वीं अनुसूचीमें
अंतर्विष्ट राज्यसूची में वर्णित विषयों में से किसी विषय पर कानून बनाना आवश्यक
हो तब राज्यपाल
मंत्रिपरिषद् के सलाह पर अध्यादेश जारी कर सकता है। इस प्रकार जारी किया गया अध्यादेश मात्र 6 महीने तक प्रभावी रहता
है। 6 महीने की अवधि
के समापन के पूर्व ही राज्य विधान मंडल का सत्र प्रारंभ हो जाय तो अध्यादेश को 6 सप्ताह के भीतर अनुमोदन प्राप्त करना
आवश्यक है और यदि 6 सप्ताह के भीतर
अनुमोदन नहीं होता है तो अध्यादेश प्रभावहीन हो जाएगा
(iii)
वित्तीय
अधिकार - संविधान द्वारा राज्यपाल को अग्रलिखित वित्तीय अधिकार प्राप्त है- राज्यपाल के
सिफारिश के बिना विधान सभा में धन विधेयक पेश नहीं किया जा सकता है। राज्य की आकस्मिक निधि से व्यय
राज्यपाल की अनुमति के बिना नहीं किया जा सकता । राज्यपाल राज्य के वित्त मंत्री के माध्यम से
विधान सभा में राज्य का वार्षिक वित्तीय विवरण पेश करता है।
किसी प्रकार के अनुदान के मांग को या करों के प्रस्ताव को
राज्यपाल के अनुमोदन से ही विधान सभा में पेश किया जाता है।
(iv)
न्यायिक
अधिकार- राज्यपाल राज्य न्यायालय द्वारा दोषी सिद्ध किए अपराधियों के दण्ड को लघु करना, निलम्बन, कुछ स्थिति में क्षमा
करने की शक्ति रखता है लेकिन इस शक्ति का प्रयोग उसके द्वारा उसी सीमा तक किया जा सकता
है जिस सीमा तक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है।
राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति और प्रशासकीय भूमिका आज भी
विवाद तथा संशय के उस घेरे में बने हुए हैं जिसका रेखांकण गणतंत्र के प्रारंभिक वर्षों में
किया गया था।
विगत वर्षों में राज्यपालों के व्यवहार और क्रियाकलापों का
विशेषकर झारखण्ड में यदि लेखा-जोखा किया जाय तो उसका निष्कर्ष यही निकलता है कि उसके पद से संबंधित
संविधान सभा की अपेक्षाओं तथा केन्द्रीय सरकारों और स्वयं
अनेक राज्यपालों के द्वारा निर्मित की गई परिपाटी के बीच एक गहरी खाई बन चुकी |
वस्तुतः संविधान में राज्यपाल का पद अजीब स्थिति में है। आज
राज्यपाल का पद अजीव स्थिति में है। आज राज्यपाल का पद बख्शीश के रूप में दिया जाने लगा है।
केन्द्र सरकार जिस किसी को भी इस पद पद उपकृत करती है बदले में उससे अपने दल के हित में कार्य कराती है
परिणामतः उस पद के चारों तरफ स्वार्थी तत्त्वों की भीड़ इकट्ठी होने लगती है। इससे इस
संवैधानिक पद की गरिमा को आघात पहुँचता है। केन्द्र में चाहे
कांग्रेस की सरकार बनी या जनता पार्टी, जनता दल, संयुक्त मोर्चा या भारतीय
जनता पार्टी की सरकार सबने उसी परिपाटी का अनुसरण किया है। झारखण्ड में जिस तरह विगत राज्यपालों
द्वारा जो कार्य किया गया है |
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि राज्यपाल को राज्य में
संवैधानिक अध्यक्ष तथा केन्द्र के अभिकर्ता की दोहरी भूमिका निभानी पड़ती है वह इस दोहरी
भूमिका में संतुलन लाकर ही अपने पद को सार्थकता प्रदान कर सकता है।
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