JPSC MAINS NOTES IN HINDI PAPER 3 GEOGRAPHY TOPIC (the relevance of weather forecast and seismic studies)मौसम पूर्वानुमान एवं भूकंप अध्ययनों की प्रासंगिकता
झारखण्ड लोक सेवा आयोग (JHARKHAND PUBLIC SERVICE COMMISSION (JPSC)
सेलेबस पर आधारित क्वेश्चन आंसर राइटिंग ( syllabus based mains question answer writing )
मौसम पूर्वानुमान एवं भूकंप अध्ययनों की प्रासंगिकता
मौसम पूर्वानुमान एवं भूकंप अध्ययनों की प्रासंगिकता को निम्न बिन्दुओं पर रेखांकित किया जा सकता है-
1. कृषि- 'कृषि' मानव सभ्यता का आधार है। विश्व के अधिकांश भागों में,विशेषकर भारत जैसे कृषि प्रधान देश में आज भी कृषि मॉनसूनी एवं जलवायविक परिस्थितियों पर आधारित है। आज भी भारतीय कृषि को मॉनसून के साथ जुआ कह कर संबोधित किया जाता है।
कृषि क्षेत्र में बाढ़, सूखा, वर्षा की सत्यता आदि की पूर्व सूचना प्राप्त कर भावी समस्या के समाधान की सटीक रणनीति या तदनुरूप कृषि पद्धति में परिवर्तन कर अकाल, जलकाल, तिनकाल, भूखमरी किसानों की आत्महत्या एवं पिछड़ी कृषि के कारण गिरते विकास दर की स्थिति से बचा जा सकता है।
2. आपदा प्रबंधन के संदर्भ में मौसम पूर्वानुमान अत्यंत ही
प्रासंगिक है । भारत ही नहीं संपूर्ण विश्व में चक्रवात, भू-स्खलन, तूफान आदि से बड़े पैमाने पर जान-माल की क्षति होती है। भारत के तटीय
प्रदेशों (उड़ीसा, पश्चिम बंगाल
आदि) में निरन्तर चक्रवात की स्थिति उत्पन्न होती रही है । विगत वर्षों में अमेरिका में
आया चक्रवात और जापान सुनामी भी काफी विनाशकारी रहा । इस प्रकार के आपदाओं के
पूर्वानुमान एवं पूर्व चेतावनी के कारण समय रहते बचाव की रणनीति बनाने और जान-माल की व्यापक क्षति को रोकने में सहायता मिली
है ।
3. वर्त्तमान में बढ़ते वैश्विकतापन (Global Warming) के कारण जलवायु परिवर्तन बाढ़ और सूखा की बारम्बारता आदि के संदर्भ में ।
4. पूर्वानुमान को अवधि के आधार पर तीन भागों में विभक्त किया
जाता है - दीर्घावधिक, मध्यावधिक एवं
निम्नावधिक । आज उपग्रहों एवं सुपरकम्प्यूटरों के प्रयोग से मौसम का अल्पकालीन एवं
दीर्घकालीन दोनों प्रकार का अनुमान लगाना संभव हो सका है। इस प्रकार बृहत्
आर्थिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक गतिविधियों, आयोजनों (समारोह, राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय खेल स्पर्द्धा) के लिए सही समय
तय करने में सुविधा होती है।
5. पर्यटन (स्वास्थ्य पर्यटन, साहसिक पर्यटन) के साथ-साथ सामान्य दिनचर्या
में भी मौसम पूर्वानुमान
से प्राप्त जानकारी के उपयोग हो रहे हैं ।
6. भूकंप अध्ययन के अंतर्गत, भूकंप उत्पत्ति केन्द्र से उत्पन्न तीन प्रकार की लहरों या तरंगों—प्राथमिक या अनुदैर्घ्य लहरें (P), गौण या अनुप्रस्थ लहरें (S) एवं धरातलीय लहरें (L) का अध्ययन सिस्मोग्राफ नामक यंत्र से किया जाता है एवं सुपर कम्प्यूटर आदि की सहायता से जरूरी जानकारियाँ प्राप्त की जाती है।
भूकंप अध्ययनों की प्रासंगिकता को निम्न बिन्दुओं पर स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) भूकंप प्रभावित
क्षेत्रों का निर्धारण और विशेष निवारक उपायों का क्रियान्वयन ।
(ii) वर्तमान भूकंप अध्ययन भी भावी भूकंप की तीव्रता एवं सही समय की पूर्ण एवं सटीक जानकारी देने में सक्षम नहीं हो सका है फिर भी भूकंप उत्पत्ति के तुरंत बाद यह सूचना देने में सक्षम है।
ऐसे में जापान जैसे भूकंप प्रवण प्रदेशों में तत्काल बचाव व सुरक्षा उपाय अपनाये जाने की
व्यवस्था की गई है, इससे जान-माल की
व्यापक क्षति से बचना संभव हो सका है ।
(iii) पृथ्वी की आंतरिक
संरचना के अध्ययन-इस दृष्टि से सबसे प्रमाणिक पद्धति है। भूकंपीय तरंगों के
अध्ययन के आधार पर भूगर्भ के विभिन्न स्तरों, चट्टानों की संरचना, तापमान आदि का ज्ञापनक संभव हो पाया है ।
(iv) भूगर्भिक खनिजों, ऊर्जा के स्रोतों की खोज इत्यादि के दृष्टिकोण से भी अत्यंत उपयोगी है|
(v) भूकंप अध्ययन के
परिणामतः 'सुनामी चेतावनी
प्रणाली' का विकास हो सका
है|
जो 'सूनामी' की पूर्व सूचना देते हैं। जापान, अमेरिका सहित विश्व के कई देश इस प्रणाली से लाभान्वित हो चुके हैं। भारत के तटीय क्षेत्रों में भी इस प्रणाली को लगाया गया है । ध्यातव्य है कि वर्ष 2004 में आए घातक 'सुनामी' प्रभावों से भारत समेत सम्पूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया में भारी तबाही हुई थी। वर्ष 2011 में भी सुनामी से जापान में तबाही हुई है।
निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि मानव सभ्यता के स्थायी व सतत
विकास के लिए मौसम पूर्वानुमान
एवं भूकंप अध्ययन काफी प्रासंगिक है।
प्रायद्वीपीय भारत की संरचना तथा विकास की
विवेचना कीजिए। (Discuss the structure and
evolution of the Peninsular India?)
भारत के दक्षिणी भाग में पठार का विस्तार है। उत्तर से दक्षिण पठार की चौड़ाई कम होती जाती है। दूसरे शब्दों में यह पठार शीन ओर से जल से घिरा है। इसे प्रायद्वीपीय पठार कहते हैं। भारत का यह भाग अति प्राचीन है जिसकी रचना भौगोलिक इतिहास के प्रारम्भिक काल में (R. PM) हुई थी।
इस पठार की रचना रवेदार आग्नेय और परिवर्तित चट्टानों से हुई है। अर्थात् यहाँ के चट्टानों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि यह कभी भी समुद्र के नीचे अपनी उत्पत्ति के पश्चात् नहीं गया। साथ ही इस पर पर्वत निर्माणकारी संचलन का भी प्रभाव नहीं पड़ा, जो इसकी सबसे बड़ी विशेषता मानी जाती है।
मध्यजीवी युग के समय पठार पर कुल लम्बवत् संचलन घटित हुए जिससे इसके चट्टानों की मौलिकता
पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। अतः ऐसे स्थिर भूखंडों को शिल्ड (Shield) शब्द से सम्बोधित
किया जाता है।
यह पठार त्रिभुजाकार रूप में फैला है। इस पठार के पश्चिमी भाग में पश्चिमी घाट पर्वत, पूर्वी भाग में पूर्वी घाट पर्वत, उत्तरी-पश्चिमी भाग में अरावली श्रेणी तथा उत्तरी भाग में विन्ध्य और सतपुड़ा की पहाड़ी एवं उत्तरपूर्व भाग में छोटानागपुर का पठार स्थित है।
पूर्वोत्तर भारत में स्थित मेघालय का पठार भी इसी
प्रायद्वीप का अंग माना जाता है जो कालान्तर में गारो राजमहल गैप के द्वारा शेष पठार से अलग हो
गया। इस पठार का स्वरूप काफी उबड़-खाबड़ तथा असमतल है। कहीं-कहीं अपरदित होकर काफी
निम्न हो गया है। इस पठार पर
प्रवाहित होनेवाली नदियाँ लगभग अपने आधारतल को प्राप्त कर चुकी है।
तृतीय महाकल्प में हिमालय के उत्थान के समय पठार का उ. पू.
भाग भी अपने समीपी सतह से ऊपर
उठ गया तथा इसके दक्षिणी भाग में एक भ्रंश घाटी का निर्माण हुआ
इसकी दूसरी महत्त्वपूर्ण घटना क्रिटेशियस युग में पश्चिमी भाग में उत्पन्न होने वाली ज्वालामुखी क्रिया है अर्थात् पठार के पश्चिमी भाग में दरारी उदगार के द्वारा काफी मात्रा में लावा पदार्थ आसपास के धरातल पर फैल गया जिससे लावा का पठार या दक्कन का पठार बना तथा कालान्तर में इस क्षेत्र में काली मिट्टी का निर्माण हुआ।
इस प्रकार प्रायद्वीपीय पठार न केवल भारत का बल्कि विश्व का
एक प्राचीनतम भूखंड है जिसका
प्रभाव आस-पास के धरातल पर पड़ा।
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